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________________ प्रात्मद्रव्यवादः 'तदात्मप्रेरणात्' इत्यत्रापि ज्ञातम्, अज्ञातं वा तत्तेन प्रेर्येत ? न तावदाद्यो विकल्पः; जन्तुमात्रस्य तत्परिज्ञानाभावात् । नापि द्वितीयः; अज्ञातस्य बाणादिवत्प्रेरणासम्भवात् । ननु स्वप्ने स्वहस्तादयोऽज्ञाता एव पर्यन्ते ; न; अहितपरिहारेण हिते प्रेरणा (s)सम्भवात्, ज्वलज्वलनज्वालाजालेपि तत्प्रेरणोपलम्भात् ।। अदृष्टप्रेरणात् ; इत्यप्यसारम् ; अचेतनस्यापि (स्यास्यापि) तत्प्रेरकत्वायोगात् । तत्प्रेरितस्यात्मन एव वरं प्रवृत्तिरस्तु चेतनत्वात्तस्य । दृश्यते हि वशीकरणौषधसंयुक्तस्य चेतनस्यानिष्टगृहगमनपरिहारेण विशिष्ट गृहगमनम् । तन्न मनसोपि संसारः। मन सम्बन्धी प्रात्मा की प्रेरणा से (निमित्त से) मन स्वर्गादि गमन में प्रवृत्ति करता है ऐसा कहे तो प्रश्न होगा कि ज्ञात हुए मनको आत्मा प्रेरित करता है या अज्ञात हुए मनको प्रेरित करता है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि जीव मात्र को आपके उस [ अणुरूप, अचेतन अतीन्द्रिय ऐसे] मनका परिज्ञान होना अशक्य है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं, क्योंकि जो आत्माके अज्ञात है उस मनको आत्मा प्रेरित नहीं कर सकता, जैसे जो पुरुष बाण विद्याको नहीं जानता वह बाणको प्रेरित नहीं करता । शंका-अज्ञातको भी प्रेरित कर सकते हैं, स्पप्न में अपने हाथ पैरादिको प्रज्ञात होकर प्रेरित किया जाता है ? समाधान-यह कथन ठीक नहीं, स्वप्न में अहितका परिहार करके हित में प्रवृत्ति कराना रूप प्रेरणा नहीं हो सकती है । स्वप्न अवस्था में जलती हुई अग्नि की ज्वाला में भी हाथ आदि को प्रेरित किया जाना देखा जाता है। अतः आत्मा द्वारा अज्ञात मन प्रेरित किया जाता है ऐसा तीसरा पक्ष मानना भी गलत ठहरता है । अदृष्ट की प्रेरणा पाकर मन अहितका परिहार करके स्वर्गादिगमनरूप संसार करता है ऐसा चौथा पक्ष स्वीकार करना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि मनके समान अदृष्ट भी अचेतन होने से उसमें प्रेरकपने का प्रयोग है। इससे अच्छा तो यह है कि प्रात्मा ही उस अदृष्ट द्वारा प्रेरित होकर अहितका परिहार कर स्वर्गादि गमनरूप प्रवृत्ति करता है, क्योंकि प्रात्मा चेतन है अतः वह प्रेरणानुसार कार्य की क्षमता रखता है। देखा भी जाता है कि वशीकरण औषधि संयुक्त पुरुष अनिष्ट गृहके गमनका परिहार करते हुए अपने को इष्ट ऐसे विशिष्ट गृह में प्रवेश कर जाता है । अतः मनके संसार होता है, मन संसार परिभ्रमण को करता है ऐसा कहना असिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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