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________________ ३३८ भविष्यतीति सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिको हेतु:, क्वचित्सर्वज्ञत्वाभावे साध्ये वागादिवत् । न च नित्यैकस्वभावात्कालेश्वरादेः कस्यचिदुपकारः सम्भवतीत्युक्तम् । प्रमेयकमलमार्त्तण्डे कोई कार्य भी ऐसा मान लेवें जो अन्य किसी पूर्वक होकर भी उसका उपकारक होवे अभिप्राय यह है कि ऐसे भी पदार्थ हैं जो किसी का कार्य नहीं हैं फिर भी अन्य का उपकार करते हैं अर्थात् स्वयं तो अकार्य हैं किन्तु अन्य कार्य को करते हैं इसीतरह ऐसे भी पदार्थ हैं । जो कार्य तो किसी वस्तु के हैं और अन्य किसी के उपकारक बनते हैं, जब दोनों प्रकार के पदार्थ मौजूद हैं तो यह नियम नहीं बनता कि अमुक वस्तु इसी के द्वारा की गयी होगी तभी उसका उपकार करती है । जब देवदत्त के गुण द्वारा ही की गयी हो तभी उसके भोग्य पदार्थ को एकत्रित करती । इस तरह का नियम असंभव है अतः "कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्" हेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति वाला होने से अनैकान्तिक हो जाता है— विपक्ष में जाने की शंका रहती है जैसे कि सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करने के लिये वक्तृत्वादि हेतु देते हैं वे संदिग्ध रहते हैं भावार्थ यह हुआ कि किसी ने कहा कि सर्वज्ञ नहीं हैं क्योंकि वह बोलता है, सो यहां बोलना सर्वज्ञ में है या नहीं ऐसा निश्चय नहीं होने से शंकित वृत्ति वाला हेतु कहलाता है, इसीप्रकार देवदत्त के स्त्री आदि भोग्य पदार्थ देवदत्त के गुण से किये गये होने से उसके उपकारक हैं ऐसा निश्चय नहीं कर सकते क्योंकि ईश्वरादि देवदत्त के गुण से किये गये नहीं हैं तो भी उसका उपकार करते हैं, अतः उसका कार्य होने से उसके उपकारक हैं ऐसा हेतु शंकित विपक्ष व्यावृत्ति वाला है । तथा नित्य एक स्वभाव वाले होने से काल ईश्वर आदि से किसी का उपकार होना सम्भव नहीं है, इस विषय को पहले ईश्वरवाद आदि प्रकरण में कह आये हैं। यहां पर अभिप्राय यह समझना कि " कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्” इस हेतु में “ कार्यत्वे सति" विशेषण अनर्थक है ऐसा जैन ने कहा इस पर वैशेषिक ने कहा था कि काल ईश्वरादिक स्वयं किसी के कार्य नहीं होकर भी उपकारक होते हैं, अतः हेतु में कार्यत्वसति विशेषण दिया । सो यह कथन प्रसिद्ध है, क्योंकि प्रथम तो यह बात है कि जो कार्य है वह उसी अपने कारण का ही उपकार करे ऐसा नियम नहीं बनता तथा दूसरी बात यह है कि ईश्वर आदि पदार्थ को वैशेषिक ने सर्वथा नित्य एक स्वभाववाला माना है अतः उससे किसी का [ देवदत्तादि का ] उपकार होना शक्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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