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________________ प्रात्मद्रव्यवादः ३३७ देशेऽसतोप्याकर्षणादिकार्यकर्तृत्वोपलम्भात् । 'कार्यत्वे सति' इति च विशेषणमनर्थकम् ; यदि हि तद् गुणपूर्वकत्वाभावेपि तदुपकारकत्वं दृष्टं स्यात् तदा 'कार्यत्वे सति' इति विशेषणं युज्येत, 'सति सम्भवे व्यभिचारे च विशेषणमुपादीयमानमर्थवद्भवति' इति न्यायात् । कालेश्वरादौ दृष्टमिति चेत् ; तहि कालेश्वरादिकमतद्गुणपूर्वकमति यदि तदुपकारकम् कार्यमपि किञ्चिदन्यपूर्वकमपि तदुपकारक है । ऐसा ही कोई ललाट पर तिलक [ विशिष्ट जाति का ] लगाकर अनेक प्रकार से वस्तुओं को आकर्षित करता है, मन्त्रवादी मन्त्र कहीं दूर देश में कर रहे हैं और यहा पर विष दूर होना, या कहीं अग्नि लग जाना या बुझ जाना, घर बैठे किसी दूसरे घर के भोज्य या अन्य अन्य प्राभूषण आदि को अपने घर पर आकर्षित करना इत्यादि कार्य सम्पन्न होते हुए देखे जाते हैं। चुंबक पाषाण द्वारा दूर रहकर ही लोहा खींचा जाता है, इन सब दृष्टान्तों से निश्चित होता है कि सभी कारण कार्य के स्थान पर ही रहते हों सो बात नहीं है । इसी तरह आत्मा के व्यापकत्व सिद्ध करने के लिये देवदत्त के स्त्री आदि का शरीर देवदत्त के गुण पूर्वक होता है इत्यादि अनुमान गलत ठहरता है, इससे देवदत्तादि के आत्मा के सर्वत्र रहने की सिद्धि नहीं हो पाती है । देवदत्तादि के आत्मा को सर्वगत बतलाने के लिये "कार्यत्वे सति तदपकारकत्वात्" हेतु दिया था सो इसमें "कार्यत्वे सति" इतना जो विशेषण है वह भी व्यर्थ है, यदि देवदत्त के गुणपूर्वक हुए बिना भी उसका उपकारक ऐसा कोई कार्य दिखायी देता अर्थात् जो उसका कार्य न होकर भी उपकारक होता तब तो यह कार्यत्वे सति विशेषण उपयुक्त होता । “सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमुपादीयमानमर्थवदभवति" जब हेतुभूत विशेष्य में व्यभिचार पाना सम्भव रहता है तब विशेषण जोड़ना सार्थक होता है, ऐसा न्याय है। शंका-जो उसका कार्य न हो और उसका उपकार करता हो ऐसा देखा जाता है, अर्थात् देवदत्त के गुण का कार्य नहीं हो और देवदत्त का उपकार करे ऐसा हो सकता है, कालद्रव्य ईश्वर इत्यादि पदार्थ देवदत्त के गुण का कार्य नहीं हैं तो भी वे देवदत्त का उपकार करते हैं [ परत्वापरत्व प्रत्यय कराना स्वर्गादिका सुख देना इत्यादि ] ? समाधान-यह कथन गलत है यदि आप कालद्रव्य, ईश्वर इत्यादि को देवदत्त के गुणपूर्वक नहीं होते हुए भी देवदत्त का उपकार करने वाला मानते हैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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