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________________ २८० प्रमेयकमलमार्त्तण्डे सत्यात्म विशेषगुणत्वेपीच्छाद्व षजनितत्वाभावात् । ततः शब्दाच्छन्दोत्पत्तिवद्धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्त्यभावात् । क्षणिकत्वे चातो जन्मान्तरे फलासम्भवादक्षणिकत्वं तस्याभ्युपगन्तव्यमित्यनेनानैकान्तिको हेतुः । तो पूर्वोक्त विभुद्रव्य विशेष गुणत्वात् हेतु श्रनैकान्तिक ठहरता है । क्योंकि जो विभुद्रव्य का विशेषगुण हो वह क्षणिक हो ऐसा अविनाभाव सिद्ध नहीं हुआ है । विशेषार्थ- - शब्द आकाशद्रव्यका गुण है ऐसा वैशेषिक का कहना है, ये परवादी शब्द को द्रव्यरूप न मानकर गुणरूप मानते हैं और आकाश का गुण होना बतलाते हैं । प्राचार्य ने समझाया है कि शब्द गुणरूप तो है ही नहीं और आकाश गुण होना तो बिलकुल मूर्खता भरा कहना है, आकाश अमूर्त प्रखंड एक पदार्थ है उसका कर्णद्वारा ग्रहण में आनेवाला यह शब्द गुण कैसे हो सकता है नहीं हो सकता शब्द तो पुद्गल-जड़ द्रव्य मूर्त्तिक द्रव्य है, द्रव्य में गुण रहा करते हैं, शब्द रूप द्रव्य में स्पर्श,अल्प महत्व परिमाण, संख्या आदि गुण रहते हैं अतः यह द्रव्य रूप ही सिद्ध होता है गुणरूप नहीं, क्योंकि गुणरूप होता उसमें ये स्पर्शादि गुण नहीं पाये जाते, गुण में पुनः अन्य गुण नहीं रहते वे तो निर्गुण हुआ करते हैं । शब्द में स्पर्श गुण का सद्भाव इसलिए सिद्ध होता है कि अधिक जोरदार शब्द हो तो उससे कर्ण का घात होता है । शब्द में क्रियाशीलता देखी जाती है इसलिए भी वह द्रव्यरूप सिद्ध होता है, शब्द वक्ता के मुख से निकलकर श्रोता के कर्ण प्रदेश तक गमन कर जाता है इसीसे उसकी क्रियाशीलता सिद्ध होती है । इस क्रियाशीलता पर वैशेषिक ने कहा कि शब्द क्रियाशील नहीं, जो शब्द तालु आदि से उत्पन्न हुआ है वह कर्ण तक नहीं जाता किन्तु जलकी लहरों के समान अन्य अन्य शब्द कर्ण प्रदेश तक उत्पन्न होते जाते हैं, तब जैन ने इस वीचीत रंग - जल लहरी के समान शब्द से शब्द की उत्पत्ति होना असम्भव बतलाते हुए कहा है कि इसतरह शब्द को उत्पत्ति मानेंगे तो वह क्षणिक ठहरेगा, किन्तु शब्द क्षणिक हो नहीं सकता जो गुरुजन कह रहे हैं उसीको मैं सुन रहा हूं इत्यादि प्रत्यभिज्ञान से शब्द में अक्षणिकता सिद्ध होती है । यह भी एक बात है कि वैशेषिक शब्दको व्यापकद्रव्य जो आकाश है उसका विशेषगुण मानते हैं सो उसे क्षणिक मानेंगे तो धर्म ग्रधर्म नामा श्रात्मा के विशेषगुण के साथ व्यभिचार होवेगा । क्योंकि धर्मादिक व्यापक आत्मा के विशेषगुण होकर क्षणिक नहीं है । इस पर जैन का खंडन करने के लिए वैशेषिक कहते हैं कि हम धर्मादिको भी क्षणिक मान लेंगे । सो ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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