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________________ प्रमेयकमल मार्त्तण्डे तच्च शब्द लिङ्गाविशेषाद्विशेषलिङ्गाभावाच्चै कम् । विभु च सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात्, नित्यत्वे सत्यस्मदाद्य ुपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वाच्चात्मादिवत् । नित्यं शब्दाधिकरणं द्रव्यं सामान्यविशेषवत्वे सत्यनाश्रितत्वादात्मादिवत् । अनाश्रितं शब्दाधिकरणं द्रव्यं गुणवत्त्वे सत्यस्पर्शवत्त्वात्तद्वत् । श्रसमवायवत्त्वे सत्यनाश्रितत्वाच्चास्य द्रव्यत्वमिति । २६० शब्द दिशाद्रव्य, एवं कालद्रव्य का गुण है ऐसा कहना भी अशक्य है क्योंकि दिशादिद्रव्य तो पूर्व अपर आदि प्रत्ययों का [ प्रतीतिका ] निमित्त हुआ करते हैं । इसतरह पृथिवी आदि प्राठों ही द्रव्यों में शब्द गुण की उपलब्धि नहीं देखी जाती अतः परिशेष द्रव्य जो ग्राकाश है उसी का यह गुण है ऐसा निश्चय होता है । इस तरह शब्द यदि गुण है तो वह अन्य द्रव्यों का न होकर पारिशेष्य न्याय से श्राकाश द्रव्य का गुण है और उसी का ज्ञापक लिंग है यह सिद्ध हुआ । शब्दरूप लिंग की विशेषता [ एकता ] के कारण तथा अन्य विशेष लिंग का अभाव होने के कारण वह आकाश द्रव्य एक द्रव्यरूप ही सिद्ध होता है, अर्थात् आकाश द्रव्य एक ही है, परमाणु आदि के समान अनेक नहीं है । उस प्रकाश का गुण [ शब्द ] सर्वत्र उपलब्ध होता है अतः यह व्यापक कहलाता है । प्राकाश सदा नित्य रहता है, क्योंकि हम जैसे व्यक्ति के द्वारा उसका गुण उपलब्ध होता है, ऐसे गुण का ही वह आधार है, जिस तरह श्रात्मादि द्रव्य नित्य तथा व्यापक माने जाते हैं वैसा ही आकाश द्रव्य है । आकाश द्रव्य नित्य कैसे है, ऐसी आशंका भी नहीं करना । अब इसी को बतलाते हैं - शब्दगुण का अधिकरण भूत जो द्रव्य है वह नित्य है । [ प्रतिज्ञा ] क्योंकि सामान्य विशेषवान होकर अनाश्रित रहता है, जैसे कि आत्मा आदि द्रव्य सामान्यादि युक्त होकर अनाश्रित रहते हैं । शब्द गुण का आधारभूत द्रव्य अनाश्रित कैसे है इस बात का भी निर्णय करते हैं- -शब्द का अधिकरण भूत द्रव्य अनाश्रित होना चाहिए, क्योंकि यह द्रव्य गुण वाला होकर स्पर्शवान नहीं है, जैसे कि श्रात्म द्रव्य स्पर्शवान नहीं है अतः अनाश्रित है । तथा समवायवान नहीं होकर भी अनाश्रित रहता है इसलिए भी इसका अनाश्रितपना सिद्ध होता है, अर्थात् आकाश को अनाश्रित कहने से उसे कोई समवायरूप माने तो वैसी बात नहीं है ग्राकाश समवायवान नहीं होकर भी अनाश्रित है । इसतरह आकाश द्रव्य नित्य तथा व्यापक सिद्ध होता है, उसका अस्तित्व शब्द द्वारा निश्चित किया जाता है ऐसा हम वैशेषिक का प्रकाश द्रव्य के विषय में सिद्धान्त है | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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