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________________ आकाशद्रव्य विचारः २५६ भावित्वात्, अस्मदादिपुरुषान्तरप्रत्यक्षत्वे सति पुरुषान्त राप्रत्यक्षत्वाच्च तद्वत्, आश्रयाद्भर्यादेरन्यत्रोपलब्धेश्च । स्पर्शवतां हि पृथिव्यादीनां यथोक्तविपरीता गुणा: प्रतीयन्ते । नाप्यात्मविशेषगुणः; अहङ्कारेण विभक्तग्रहणात्, बाह्य न्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, प्रात्मान्तर ग्राह्यत्वाच्च । बुद्धयादीनां चात्मगुणानां तद्व परीत्योपलब्धः । नापि मनोगुणः; अस्मदादिप्रत्यक्षत्वाद्पादिवत् । नापि दिक्कालविशेषगुणः, तयोः पूर्वापरादिप्रत्ययहेतुत्वात् । अत: पारिशेष्याद्गुणो भूत्वाकाशस्यैव लिङ्गम् । पूर्वकपना है अर्थात् पृथिवी आदि का विशेष गुण तो परमाणु के गुणरूप कारण गुण पूर्वक होता है किन्तु शब्द ऐसा नहीं है वह तो इच्छादि गुणों के समान है, जैसे इच्छादि गुण परमाणु के कारण गुण पूर्वक नहीं होते अपितु अकारण गुणपूर्वक ही [प्रात्मा से] हुग्रा करते हैं वैसा ही शब्द नामा गुण है, तथा जैसे इच्छादि गुण अयावत्द्रव्य भावी हुआ करते हैं अर्थात् द्रव्य में सर्वत्र नहीं रहते वैसे ही शब्दनामा गुण अाकाशद्रव्य में सर्वत्र नहीं रहता है। हम जैसे निकटवर्ती अनेक पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष होने पर भी दूरवर्ती पुरुषांतरों द्वारा शब्द प्रत्यक्ष नहीं हो पाता है, जैसे इच्छादि गुण दूरवर्ती पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होते हैं । शब्द की उपलब्धि भेरी आदि आश्रयभूत पदार्थ में जैसी होती है वैस अन्य स्थान पर भी होती है अतः सिद्ध होता है कि शब्द आकाश का ही गुण है। स्पर्शगुणवाले पृथिवी आदि द्रव्यों में इन उपर्युक्त विशेषों से विपरीत ही गुण प्रतीत होते हैं अतः शब्द इनका गुण नहीं हो सकता । शब्द आत्मा का विशेष गुण भी नहीं है, क्योंकि शब्द का ग्रहण अहंकाररूप से नहीं होता अर्थात् जैसे मैं सुखी हूँ इत्यादि में "अहं मैं" ऐसा प्रतिभास होता है वैसा "मैं शब्द वाला हूँ" ऐसा प्रतिभास नहीं देखा जाता, इससे मालूम होता है कि शब्द आत्मद्रव्य का गुण नहीं है । तथा शब्द बाह्य में स्थित जो कर्णेन्द्रिय है उसके द्वारा प्रत्यक्ष होता है इसलिए अतीन्द्रिय आत्मा का विशेष गुण शब्द है ऐसा कहना असत् है। शब्द अन्य प्रात्मानों द्वारा भी ग्राह्य होता है इसलिए भी प्रात्मद्रव्य का विशेष गुण नहीं कहला सकता, बुद्धि आदिक जो आत्मा के विशेष गुण होते हैं वे ऐसे नहीं हुआ करते किन्तु इनसे विपरीत ही रहते हैं, अर्थात् शब्द के समान बाह्य न्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होना इत्यादि रूप नहीं रहते हैं। शब्द मन नामा द्रव्य का गुण है ऐसा भी सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि शब्द तो हम जैसे सामान्य व्यक्तियों के प्रत्यक्ष होता है, जिस तरह कि रूपरसादिक होते हैं किन्तु मनोद्रव्य का गुण ऐसा नहीं होता वह तो अप्रत्यक्ष रहता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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