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________________ अवयविस्वरूपविचारः २४७ रूपादिरहितं प्रत्यक्षे न प्रतिभासते तथा तद्रहिता रूपादयोपि । न खलु मातुलिङ्गद्रव्यरहितास्तद्रूपादयः स्वप्नेप्युपलभ्यन्ते । वस्तुनश्चेदमेवाध्यक्षत्वं यदनात्मस्वरूपपरिहारेण बुद्धौ स्वरूपसमर्पणं नाम । इमे तु रूपादयो द्रव्यरहितास्तत्र स्वरूपं न समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तुमिच्छन्तीत्यमूल्यदानक्रयिण : । किञ्च, इदं स्तम्भादिव्यपदेशाहँ रूपम्-कि मेकं प्रत्येकम्, अनेकानंशपरमाणुसञ्चयमानं वा? प्रथमपक्षे अधोमध्योर्वात्मकैकरूपवत् रसाद्यात्मकैकस्तम्भद्रव्यप्रसङ्ग । द्वितीयपक्षे तु किमेकमने कवैसे ही रूपादिमान पदार्थ या घट पट आदि अवयवी पदार्थ की हैं, इनमें भी अनेक धर्म या अवयव एकत्वरूप से रहते हैं, कोई बाधा नहीं है, साक्षात् प्रतीति में आने वाले पदार्थों में बाधा या शंका का स्थान नहीं रहता है । जिस प्रकार रूप आदि से रहित कोई वस्तु प्रत्यक्ष में प्रतिभासित नहीं होते हैं उसी प्रकार वस्तु बिना रूप अादिक भी तो प्रतिभासित नहीं होते हैं। मातुलिंग [बिजौरा] आदि द्रव्य से रहित उसके रूप, रस आदि गुण स्वप्न में भी प्रतिभासित नहीं होते हैं । वस्तु का प्रत्यक्षपना यही कहलाता है कि जो अनात्म-परका स्वरूप है उसका परिहार करके ज्ञान में स्वस्वरूप अर्पित करना-भलकाना, जब ये रूप, रस आदि धर्म द्रव्य रहित होकर बुद्धि में स्वस्वरूप अर्पित ही नहीं कर रहे हैं तो वे प्रत्यक्ष कैसे हो सकते हैं ? यह तो इन रूपादिका "अमूल्य दान क्रयीपना है" अर्थात् कोई पुरुष बिना मूल्य दिये चीज खरीदना चाहता हो वैसे यह कार्य हुअा ? यहां पर भी रूप, रस आदि धर्म द्रव्यरहित होकर [बिना द्रव्य के] बुद्धि में अपना स्वरूप तो समर्पण करते नहीं और प्रत्यक्ष प्रतीत होना चाहते हैं, सो ऐसा सिद्ध होना नितरां असंभव है । किञ्च, जगत् में जिसे स्तंभ, कुभ आदि नाम के योग्य मानते हैं ऐसा यह पदार्थ केवल रूप धर्म या अवयव ही है ऐसा बौद्ध ने कहा सो एक एक रूप प्रत्येक को स्तंभ, कुभ आदि नाम देते हैं अथवा अनेक अनेक अनंश परमाणुनों के संचय होने मात्र को स्तंभादि द्रव्य कहेंगे ? प्रथम पक्ष कहो तो ऊपर, नीचे, मध्य में जैसे एक एक प्रत्येक रूप स्तंभादि द्रव्य कहलाया वैसे एक एक प्रत्येक रस, गंध आदि भी स्तंभ द्रव्य कहलाने लगेंगे । अर्थात् एक स्तंभ द्रव्य में भी अनेक रूप स्तंभ, अनेक रस स्तंभ आदि द्रव्य मानने पड़ेंगे। जो किसी को भी इष्ट नहीं है। द्वितीय पक्ष - अनेक अनंश परमाणुनों के संचय को स्तंभादि द्रव्य कहते हैं ऐसा कहे तो पुन: दो प्रश्न होते हैं कि अनेक परमाणुगों के प्राकारों से परिणत हुना एक ज्ञान उस लक्षण वाले स्तंभादि द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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