SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४६ प्रमेयकमलमार्तण्डे वाच्यम् ; इत्यविचारितरमणीयम् ; यतः किमेकस्य रूपादिमतोऽसम्भवो विरुद्धधर्माध्यासेनैकत्रकत्वानेकत्वयोस्तादात्म्यविरोधात्, तद्ग्रहणोपायासम्भवाद्वा ? प्रथमपक्षे तत्र तयोः कथञ्चित्तादात्म्यं विरुद्धयते, सर्वथा वा ? सर्वथा चेत् ; सिद्धसाध्यता। कथञ्चिदेकत्वं तु रूपादिभिविरुद्धधर्माध्यासेप्येकस्याऽविरुद्धम् चित्रज्ञानस्येव नीलाद्याकारविकल्पज्ञानस्येव वा विकल्पेतराकारैरिति । यथा च समाधान-यह सुगत पक्षीय कथन अविचारपूर्ण है, बताइये कि एक वस्तु में एकत्वरूप अवयवी और अनेक रूप अवयव या रूपरसादि का विरुद्ध धर्माध्यास के कारण तादात्म्य होना असंभव है, अथवा ऐसे एकत्व अनेकत्व रूप अवयवी आदि रूपादिमान को ग्रहण करने वाला प्रमाण नहीं होने से इस तरह का अवयवी द्रव्य असम्भव है। प्रथम पक्ष कहो तो उन एकत्व अनेकत्व का तादात्म्य होना कथंचित् विरुद्ध है या सर्वथा विरुद्ध है ? तादात्म्य होने में सर्वथा विरोध है ऐसा कहो तो सिद्ध साध्यता है। कथंचित् तादात्म्य होने में विरोध है ऐसा कहना तो गलत होगा, रूपादिका परस्पर विरुद्ध धर्माध्यास होते हुए भी वे एक के होते हैं, जैसे एक चित्र ज्ञान के नील, पीत आदि आकार हैं वे आकार परस्पर विरुद्ध धर्म वाले होकर भी चित्र ज्ञान में तो कथंचित् एक रूप माने गये हैं। अथवा एक विकल्प ज्ञान में विकल्प और निर्विकल्प आकार विरुद्ध होकर भी अविरुद्ध रहते हैं ऐसा आपने माना है ठीक इसी तरह रूप रस आदि परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों का एक ही रूपादिमान पदार्थ में एकत्वरूप रहना अविरुद्ध है । विशेषार्थ- वैशेषिक के अवयवी द्रव्य का जैन खण्डन कर रहे थे और पट, घट, गह ग्रादि अवयवी द्रव्य का निर्दोष लक्षण बतला रहे थे कि इतने में बौद्ध ने कहा कि आप लोग अवयवी के विषय में क्यों विवाद कर रहे अवयवी ही संसार में नहीं है, रूप, रस आदि रूप परमाणु या अवयव मात्र द्रव्य हैं । तब प्राचार्य ने कहा कि अवयवी द्रव्य को क्यों नहीं माना जाय, अवयव या रूप आदि अनेक विरुद्ध धर्मों का एक में रहना असम्भव होने से, नहीं माना जाय । ऐसा कहना अशक्य है; स्वयं बौद्ध एक चित्र में अनेक नील पोत आदि विरुद्ध धर्मों का तादात्म्य मानते हैं। तथा पूर्व के सविकल्प ज्ञानरूप उपादान से जिसमें कि निर्विकल्पज्ञान सहकारी है उससे जब सविकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उभय-सविकल्प तथा निर्विकल्प दोनों ज्ञानों के आकार को धारण करता है ऐसा सौगत ने माना है सो जैसी बात इन ज्ञानों की है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy