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प्रवयविस्वरूपविचार:
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रूपरसादिभिश्चानेकान्तात्, तेषां समानदेशत्वेपि भेदेनोपलम्भसम्भवात् ।
किञ्च, अवयवावयविनो: शास्त्रीयदेशापेक्षया समानदेशत्वम्, लौकिकदेशापेक्षया वा? प्रथमपक्षेऽसिद्धो हेतुः; पटावयविनो ह्यन्ये एवारम्भकास्तन्त्वादयो देशास्तेषां चान्ये भवद्भिरभ्युपगम्यन्ते । द्वितीयपक्षेप्यनेकान्तः; लोके हि समानदेशत्वमेकभाजनवृत्तिलक्षणं भेदेनार्थानामुपलम्भेप्युपलब्धम्, यथा कुण्डे बदरादीनाम् ।
होते हुए भी भेद दिखायी नहीं देता ऐसा वैशेषिक का कहा हुआ हेतु भी वायु और आतप आदि अथवा रूप और रस आदि के साथ व्यभिचरित होता है क्योंकि वायु और आतप आदि पदार्थों के समान देश होते हुए भी इनका भिन्न भिन्न रूप से ग्रहण होता है, इसलिये यह कहना गलत ठहरता है कि एक ही जगह अवयव अवयवी रहते हैं अत: भिन्नता मालूम नहीं पड़ती, इत्यादि ।
अवयव अवयवी में समान देशपना है ऐसा प्रापका कहना है सो वह समान देशपना कौनसा इष्ट है, शास्त्रीय देश की अपेक्षा से समानता है या लौकिक देश की अपेक्षा से समानता है ? प्रथम पक्ष कहो तो हेतु असिद्ध ठहरेगा कैसे सो बताते हैंपट रूप अवयवी से अन्य ही उसको उत्पन्न करने वाले तन्तु आदि के देश हैं, अर्थात् पट अवयवी का देश अलग है और तन्तु आदि अवयवों का देश अलग है ऐसा प्राप स्वयंने माना है। अतः अवयवो और अवयवों के देश समान होते हैं ऐसा कहना आपके लिए असम्भव है । दूसरा पक्ष-लौकिक देशकी अपेक्षा से अवयवी और अवयवों के देश समान है ऐसा कहो तो अनेकान्तिकता होगी, क्योंकि लोक में एक भाजनमें रहना आदि रूप समान देशता मानी है और ऐसी समानदेशता होते हुए भी उन पदार्थों का भेदरूप से उपलब्धि होना स्वीकार किया गया है, जैसे कि कुण्ड में [वर्तन विशेष] बेर हैं सो लोक में कुण्ड और बेरको एक स्थान पर मानते हैं, किन्तु समान देशता होते हुए भी इनका भिन्न भिन्न प्रतिभास होता है अतः यह कहना गलत ठहरता है कि जिनमें समान देशता होती हैं वे पदार्थ भिन्न भिन्न प्रतिभासित नहीं होते हैं।
विशेषार्थ – अवयवों से अवयवी सर्वथा पृथक् रहता है या अवयवी से अवयव सर्वथा पृथक् रहते हैं ऐसा वैशेषिक का दुराग्रह है तब आचार्य पूछते हैं कि अवयवी से अवयव सर्वथा पृथक् है तो उन दोनों का पृथक् पृथक् प्रतिभास होना चाहिए, तथा
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