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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववाद:
२०६ न्तरं तस्य तद्विशेषणत्वाभावात् । तदप्यसमीचीनम् ; विरोधो हि तुच्छरूपोऽभावः, स यदि शीतोष्णद्रव्ययोविशेषणं तहि तयोरदर्शनापत्तिस्तत्सम्बद्धरूपत्वात् । असम्बद्धस्य च विशेषणत्वेऽतिप्रसंगात् ।
अन्यतरविशेषणत्वेप्येतदेव दूषणम् । तदेव च विरोधि स्याद्यस्यासौ विशेषणं नान्यत् । न चैकत्र विरोधो नामास्य द्विष्ठत्वात्, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा तत्प्रसंगः ।
अथ विरुध्यमानत्वविरोधकत्वापेक्षया कर्मकर्तृस्थो विरोध , विरोधसामान्यापेक्षयोभयविशेषणत्व द्विष्ठोभिधीयते । नन्वेवं रूपादेरपि द्विष्ठत्वापत्तिः किन्न स्यात् तत्सामान्यस्यापि द्विष्ठत्वाविशे
दिखाई नहीं देंगे। क्योंकि अभावरूप विरोधनामा विशेषण से वे पदार्थ सम्बद्ध हो चके हैं। यदि कहा जाय कि शीत आदि द्रव्य में विरोधनामा विशेषण असम्बद्ध रहकर ही विशेषणभूत बन जाता है, तब तो अतिप्रसंग उपस्थित होगा, फिर तो चाहे जो विशेषण चाहे जिस पदार्थ का कहलाने लगेगा।
यदि शीत द्रव्य और उष्ण द्रव्य इनमें से एक किसी का विशेषणरूप विरोध को माना जाय तो भी यही उपयुक्त दोष अाता है कि दिखायी नहीं देना, अर्थात् तुच्छाभाव स्वरूप विरोध शीत आदि द्रव्यों में से जिसका भी विशेषण होगा वही पदार्थ अदृष्टव्य बन जायगा-अभावरूप होवेगा । क्योंकि वह अभाव रूप विरोध से सम्बद्ध हुया है । तथा यह भी बात होगी कि जिस किसी शीत या उष्ण द्रव्य का यह विरोध विशेषण माना जायगा उसी एक का ही वह विरोधक बनेगा, अन्य का नहीं । और भी दूषण सुनिये-यदि शीतादि उभय द्रव्यों में से एक का ही विरोध नामा विशेषण है ऐसा आप कहते हैं तो भी ठीक नहीं रहेगा। क्योंकि विरोध दो पदार्थों में हुआ करता है, एक में काहे का विरोध ! अन्यथा सब जगह हमेशा ही विरोध होता रहेगा।
वैशेषिक-विरुध्यमानत्व और विरोधकत्व की अपेक्षा लेकर कर्ता और कर्म में विरोध स्थित है ऐसा माना जाता है, इस तरह विरोध सामान्य की अपेक्षासे दोनों का ( विरुध्य-विरोध करने योग्य शीत द्रव्य और विरोधक-विरोध करने वाला उष्ण द्रव्य इन दोनों का ) विशेषण बन जाने से विरोध को द्विष्ठ कहा जाता है ।
जैन- यदि ऐसो बात है तो रूपादि को भी द्विष्ठपने की आपत्ति क्यों नहीं आयेगी ? क्योंकि उनके सामान्य का भी द्विष्ठपना समान रूप से है। तथा विरोध को
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