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प्रमेयकमलमार्तण्डे योर्भेदः, धूपदहनाद्यवयविनस्तु न भेदः । न चास्य शीतोष्णस्पर्शाधारता नास्तीत्यभिधातव्यम् ; प्रत्यक्षविरोधात् । तन्न सर्वथा विरोधः । कथंचिद्विरोधस्तु सर्वत्र समानः ।
किंच, भावेभ्योऽभिन्न :, भिन्नो वा विरोध: स्यात् ? न तावत्तभ्योऽभिन्नो विरोधो विरोधको युक्तः; स्वात्मभूतत्वात्तत्स्वरूपवत्, विपर्ययानुषंगो वा । अथ भिन्नः, तथापि न विरोधक:; अनात्मभूतत्वादर्थान्तरवत् । अथार्थान्तरभूतोपि विरोधो विरोधको भावानां विशेषणभूतत्वात्, न पुनर्भावा
जैन-ठीक है, किन्तु प्रदेश विभाग होकर भी धूपदहनरूप अवयवी तो एक ही है ? यह एक ही धूपदहनरूप वस्तु शीत और उष्ण स्पर्श का प्राधार नहीं है ऐसा तो कोई कह नहीं सकता, क्योंकि ऐसा कहने में साक्षात् विरोध दिखाई देता है। अतः भेदाभेद, सत्वासत्व आदि में सर्वथा विरोध मानना प्रसिद्ध है। इन भेद और अभेद
आदि में कथंचित् विरोध है, ऐसा दूसरा विकल्प कहो तब तो कोई बात नहीं, ऐसा विरोध तो भेद अभेद में ही क्या घट पट आदि में भी हुआ ही करता है।
यह भी बताना चाहिये कि पदार्थों से विरोध भिन्न होता है या अभिन्न ? अभिन्न तो हो नहीं सकता, जो अभिन्नरूप है वह उस वस्तु का स्वरूप ही है, फिर वह कैसे विरोधक होवेगा? यदि जो वस्तु से अभिन्न है, वह भी विरोधक होता है तब तो वस्तु का स्वरूप भी उसका विरोधक बन जायेगा । क्योंकि जैसे वस्तु से अभिन्न रहकर विरोध ने वस्तु का विरोध किया वैसे वस्तु का स्वरूप भी उससे अभिन्न होने से विरोधक हो सकेगा। यदि दूसरा पक्ष कहा जाय कि पदार्थों से विरोध भिन्न है तो भी ठीक नहीं, भिन्न रहकर विरोधक कैसे बने ? क्योंकि वह अनात्मभूत है, अर्थात् पदार्थ का स्वरूप नहीं, जैसे दूसरा भिन्न पदार्थ अनात्मभूत होने से उसका विरोधक नहीं बन पाता है ।
वैशेषिक-पदार्थों से विरोध अर्थांतर ( अलग ) रहकर भी विरोधक हो जाता है, क्योंकि वह उन पदार्थों का विशेषण हुआ करता है, किन्तु अन्य पदार्थ अन्य के विरोधक नहीं होते क्योंकि वे उनके विशेषणभूत नहीं हैं।
जैन-यह कथन असत् है, विरोध आपके यहां तुच्छाभावरूप बतलाया है, वह यदि शीत द्रव्य और उष्ण द्रव्य आदि का विशेषण बनेगा तो वे शीतादि पदार्थ
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