SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वित्वादिसंख्या प्रकाशमाना स्वात्ममात्रापेक्षकत्वसंख्यातो नान्या प्रतीयते । नापि सोभयी तद्वतो भिनैव; अस्याऽसंख्येयत्वप्रसंगात् । संख्यासमवायात्तत्त्वम् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; कथञ्चित्तादात्म्यव्यतिरिक्तस्य समवायस्यासत्त्वप्रतिपादनात् । तत्सिद्धोऽपेक्षणीयभेदात्संख्यावत्सत्त्वासत्त्वयोर्भेदः । तथाभूतयोश्चानयोरेक वस्तुनिप्रतीयमानत्वात्कथं विरोधः द्रव्यपर्यायरूपत्वादिना भेदाभेदयोर्वा ? मिथ्येयं प्रतीतिः; इत्यप्यसंगतम् ; बाधकाभावात् । विरोधो बाधकः; इत्यप्य युक्तम् ; इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-सति हि विरोधे तेनास्याबाध्यमानत्वान्मिथ्यात्वसिद्धिः, ततश्च तद्विरोधसिद्धिरिति । आदि अनेकों प्रमाणों द्वारा ग्रहण में आता है, किन्तु इतने मात्र से उसमें भेद नहीं माना जाता, एक ही वृक्ष दूर से अस्पष्ट ज्ञान से ग्रहण होता है और निकटता से स्पष्ट ज्ञान द्वारा ग्रहण में प्राता है, पर्वत पर होने वाली अग्नि प्रथम धूम हेतु से अनुमान प्रमाण द्वारा ग्राह्य होती है एवं वहीं पुनः पर्वत पर जाकर प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा ग्राह्य हो जाती है, सो क्या इन वृक्ष और अग्नि में भेद है ? अर्थात् नहीं, इसलिये भिन्न प्रमाण ग्राह्यत्व हेतु गुण गुणी आदि में सर्वथा भेद सिद्ध नहीं कर सकता, जैन गुण गुणो अवयवी आदि पदार्थों में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानते हैं, द्रव्य दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अभेदरूप है और वही पदार्थ पर्याय दृष्टि से भेदरूप है । वैशेषिक का यह हटाग्रह है कि पदार्थ या तो भावरूप ( अस्तित्व ) है या सर्वथा अभावरूप है, सो बात गलत है, पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सद्भाव-अस्तित्व या सत्वरूप है, किन्तु पर द्रव्यादि की अपेक्षा से वैसा नहीं है, अपितु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा वह अभाव-नास्ति या असत्वरूप ही है, यदि ऐसा न माना जाय तो एक पट नामा पदार्थ जैसे अपने पटपने है वैसे घटपने, गृहपने भी है, सबमें पट मौजूद है ऐसा मानना पड़ेगा जो कि प्रतीति विरुद्ध है, तथा वह पट यदि सर्वथा अभावरूप है तो स्वस्वरूप से भी रहित होवेगा । एक ही वस्तु में अस्ति नास्ति, भेद अभेद, नित्य अनित्य, एक अनेक इत्यादि विरोधी धर्म साक्षात् प्रतीति में आते हैं अतः उनको उसीतरह मानना चाहिये। विरोध तब होता है जब वस्तु वैसी प्रतिभासित न होवे । वस्तु में जो स्वरूप से सद्भाव है वही पररूप से अभाव नहीं कहलाता, तथा जो पररूप से प्रभाव है वही स्वरूप से सद्भाव नहीं होता, किन्तु इनमें अपेक्षा के निमित्त से भेद हुआ करता है, सो अपेक्षा ही बतलाई जाती है-स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा लेकर पदार्थ सद्भावरूप ज्ञान को उत्पन्न कराते हैं, और परद्रव्यादि चतुष्टय की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy