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________________ १७२ प्रमेयकमलमार्तण्डे तत्र पर्यायस्वरूपं निरूपयतिएकस्मिन्द्रव्ये क्रममाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥ ६ ॥ अत्रोदाहरणमाह अात्मनि हर्ष विषादादिवत् । ननु हर्षादिविशेषव्यतिरेकेणात्मनोऽसत्त्वादयुक्तमिदमुदाहरण मित्यन्यः; सोप्यप्रेक्षापूर्वकारी; चित्रसंवेदनवदनेकाकारव्यापित्वेनात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् 'यद्यथा प्रतिभासते तत्तथैव व्यवहर्तव्यम् यथा वेद्याद्याकारात्मसंवेदनरूपतया प्रतिभासमानं संवेदनम्, सुखाद्यनेकाकारकात्मतया प्रतिभासमानश्चात्मा इत्यनुमानप्रसिद्धत्वाच्च । पर्याय विशेष और व्यतिरेक विशेष इस तरह विशेष के दो भेद हैं । इनमें से पर्याय विशेष का स्वरूप बतलाते हैं - एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्ष विषादादिवत् ।। ६ ।। एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय विशेष कहते हैं, जैसे प्रात्मा में क्रमशः हर्ष और विषाद हुग्रा करते हैं। सौगत-हर्ष और विषाद आदि को छोड़कर दूसरा कोई प्रात्मा नामा पदार्थ नहीं है, अतः उसका उदाहरण देना अयुक्त है ? जैन- यह कथन अविचारकपने का सूचक है, जिसप्रकार आप एक चित्र ज्ञान को अनेक नील पोत आदि आकारों में व्यापक मानते हैं वैसे आत्मा अनेक हर्षादि परिणामों में व्यापक रहता है ऐसा मानना होगा, क्योंकि ऐसा स्वयं अपने को ही साक्षात् अनुभव में आ रहा है। जो जैसा अनुभव में प्राता है उस वस्तु को वैसा ही कहना चाहिए, जिस तरह संवेदन ( ज्ञान ) वेद्य तथा वेदक आकार रूप से प्रतीत होता है तो उसे वैसा मानते हैं, उसी तरह आत्मा भी सुख तथा दुःख आदि अनेक आकार से प्रतीत होता है अतः उसे वैसा मानना चाहिए। इसप्रकार अनुमान से आत्मा की सिद्धि होती है । सुख-दुःख आदि पर्याय परस्पर में एकान्त से भिन्न हैं उनमें कोई व्यापक एक द्रव्य नहीं है ऐसा माने तो "मैं पहले सुखी था, अब दुःखी हूं" इसतरह अनुसंधानरूप ज्ञान नहीं होना चाहिए किन्तु होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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