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________________ संबंधसद्भाववादः १६५ अकार्यकारणभावेपि चैतत्सर्वं समानम्-सोपि हि द्विष्ठः कथमसहभाविनोः कार्यकारणत्वाभ्यां निषेध्ययोर्वर्तत ? न चाद्विष्ठोसौ; सम्बन्धाभावविरोधात् । पूर्वत्र भावे वत्तित्वा परत्र क्रमेणासो वर्तमानोऽन्यनिस्पृहत्वेनैक वृत्तिमत्त्वात्कथं सम्बन्धाभावरूपता ( तां) प्रतिपद्येत ? अथाकार्यकारणयोरेकम पेक्ष्यान्य त्रासौ क्रमेण वर्त त इति सस्पृहत्वेनास्य द्विष्ठत्वात्तदभावरूपतेष्यते; तदा तेनापेक्ष्यमारणेनोपकारिणा भवितव्यम् । 'कथं चोपकरोत्यसन्' इत्यादि सर्वमत्रापि योजनीयम् । अकार्य कारणभाव भी दो में हुआ करता है, जो पदार्थ परस्पर में कार्य कारणरूप नहीं हैं अर्थात् अकार्य कारणरूप गो महिषादिक हैं वे यदि सहभावी (साथ) नहीं हैं उनका कार्य और कारणपने से कैसे निषेध कर सकते हैं अथवा वे अपने को कार्य कारण के निषेधरूप कैसे रख सकते हैं ? तुम कहो कि अकार्य कारणभाव अद्विष्ठ ( एक में रहने वाला ) होता है, सो भी बात नहीं है, यदि वह अद्विष्ठ है तो संबंध का अभावरूप होने में विरोध आयेगा। पूर्व की अकारणरूप अवस्था में रहकर क्रमसे अन्य अकार्य में प्रवृत्तमान वह पदार्थ जब अन्य से निस्पृह एवं एक में ही वृत्तिमान है तब उस पदार्थ के सम्बन्ध के अभावपने को कैसे जान सकते हैं ? इसप्रकार सम्बन्ध के समान सम्बन्ध के अभाव के विषय में शंकायें कर सकते हैं। बौद्ध-अकार्य और अकारण इन दो पदार्थों में से एक की अपेक्षा लेकर क्रम से यह असम्बन्ध रहा करता है इसतरह यह असम्बन्ध सस्पृह होने से द्विष्ठ ही है, इसप्रकार हम सम्बन्ध के अभाव को मानते हैं । जैन- यदि ऐसी बात है तो पुन: वही सम्बन्ध के विषय में किये गये प्रश्न उठेगे कि वह असम्बन्ध अकार्य अकारण से पृथक् है अतः उसको जोड़नेवाला उपकारक चाहिये, पुनः वह उपकारक भी पृथक् होगा इत्यादि अनवस्था आदि दूषण आते हैं, तथा जब अकार्य आदि असत् है तब उपकारक कैसे हो सकता है इत्यादि दोष असंबंध पक्ष में भी आते हैं। यदि पदार्थों में अकार्य कारणभाव भी न मानें तब तो कार्य कारणभाव वास्तविक ही सिद्ध हो जायगा, क्योंकि दोनों का अभाव करने में विरोध आता है । जैसे किसी पदार्थ में नील और अनील दोनोंका अभाव नहीं कर सकते, अर्थात् यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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