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________________ १६४ प्रमेयकमलमार्तण्डे न चेन्धनादिप्रभवपावकस्य मण्यादिप्रभवपावकादभेदो येन नियतः कार्यकारणभावो न स्यात् । अन्यादृशाकारो हीन्धनप्रभव: पावकोऽन्यादृशाकारश्च मण्यादिप्रभवः । तद्विचारे च प्रतिपत्त्रा निपुणेन भाव्यम् । यत्नतः परीक्षितं हि कार्य कारणं नातिवर्तते । कथमन्यथा वीतरागेत रव्यवस्था तच्चेष्टायाः साङ्कोपलम्भात् ? कथं चैवंवादिनो मृतेतरव्यवस्था स्यात् ? व्यापारव्याहाराकारविशेषस्य हि क्वचिच्चैतन्य. कार्यतयोपलम्भे सत्यस्त्यत्र जीवच्छरीरे चैतन्यं व्यापारादिकार्य विशेषोपलम्भात्, मृतशरीरे तु नास्ति तदनुपलम्भादिति कार्यविशेषस्योपलम्भानुपलम्भाभ्यां कारणविशेषस्य भावाभावप्रसिद्ध स्तद्वयवस्था युज्येत । दिखाई देता है कि ईन्धन से पैदा हई अग्नि अन्य ही आकार वाली हगा करती है और सूर्यकान्त मणि से पैदा हुई अग्नि अन्य प्रकार की होती है। अग्नि और धूम हो चाहे अन्य भी कोई वस्तु उसका सही ज्ञान प्राप्त कराने के लिए पुरुष को निपुण होना आवश्यक है। "यत्नतः परीक्षितं हि कार्य कारणं नातिवर्त्ततेप्रयत्न पूर्वक यदि कार्य कारण की परीक्षा करते हैं तो कभी भी कार्य कारण का उल्लंघन करनेवाला ( कारण के बिना ही होनेवाला ) दिखाई नहीं देगा। इसतरह की व्यवस्था यदि नहीं मानी जाय तो सराग और वीतराग पुरुष की सिद्धि किस प्रकार होगी ? क्योंकि उन दोनों की चेष्टा भी समान हुआ करती है । ईन्धन प्रभव अग्नि और मणि प्रभव अग्नि में यदि बौद्ध को भेद नहीं दिखाई देता है तो वह मृतक पुरुष और जीवंत पुरुष में किसप्रकार भेद सिद्ध कर सकेंगे ? व्यापार, वचन आदि विशेष चिह्न को देखकर "यह चैतन्य का काम है" अतः यह पुरुष जीवंत है ऐसा कहा जाता है, अर्थात् इस जोवंत शरीर में अवश्य ही चैतन्य है, क्योंकि उसका कार्य व्यापार ( हाथ आदि को हिलाना अादि क्रिया ) जानना, देखना. श्वास लेना इत्यादि हो रहा है, मृतक शरीर में व्यापारादि नहीं होते अतः उसमें चैतन्य नहीं है, ऐसी मृतक और जीवंत पुरुष की व्यवस्था हो जाती है ऐसा कहो तो वैसे ही कार्य विशेष की उपलब्धि होने से कारण विशेष की उपलब्धि होना तथा कारण के न होने से कार्य का नहीं होना इत्यादि रूप से धूम और अग्नि आदि पदार्थों में कार्य कारण भाव सम्बन्ध की सिद्धि होती है । तथा यदि बौद्ध कार्य कारण भाव में दोष देते हैं, तो अकार्य कारण भाव में भी वे दोष आते हैं, कैसे सो बताते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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