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संबंधसद्भाववादः किञ्च, पारतन्त्र्यस्याऽभावाद्भावानां सम्बन्धाभावे तेन व्याप्त: क्वचित्सम्बन्धी प्रसिद्धः, न वा? प्रसिद्धश्चेत् ; कथं सर्वत्र सर्वदा सम्बन्धाभाव: विरोधात् ? नो चेत् ; कथमव्यापकाभावादव्याप्यस्याभावसिद्धिरतिप्रसङ्गात् ?
'रूपश्लेषो हि' इत्याद्यप्येकान्तवादिनामेव दूषणं नास्माकम् ; कथञ्चित्सम्बन्धिनोरेकत्वापत्तिस्वभावस्य रूपश्लेषलक्षणसम्बन्धस्याभ्युपगमात् । अशक्यविवेचनत्वं हि सम्बन्धिनो रूपश्लेषः, असाधारणस्वरूपता च तद्ऽश्लेषः । स चानयोद्वित्वं न विरुध्यात् तथा प्रतीतेश्चित्राकारकैसंवेदनवत् । न चापेक्षिकत्वात्सम्बन्धस्वभावस्यापि तथाभावानुषङ्गात् । सोपि ह्यापेक्षिक एव कञ्चिदर्थमपेक्ष्य
यदि ज्ञात है तो सर्वत्र हमेशा संबंध का अभाव कैसे कर सकते हैं ? ज्ञात रूप से प्रसिद्ध सम्बन्ध का अभाव करना विरुद्ध है। यदि कहो कि परतन्त्रता के साथ संबंध की व्याप्ति ज्ञात नहीं है तो फिर अव्यापक के प्रभाव से अव्याप्य के अभाव की सिद्धि किस प्रकार कर सकते हैं अर्थात् परतन्त्रता और सम्बन्ध में जब व्यापक-व्याप्य भाव ही प्रसिद्ध नहीं है तो एक के अभाव में दूसरे का प्रभाव कैसे कर सकते हैं, नहीं कर सकते, अन्यथा घट के अभाव में पट का प्रभाव करने का अति प्रसंग उपस्थित होगा।
सम्बन्ध का लक्षण रूप श्लेष करे तो भी नहीं बनता इत्यादि पहले कहा था सो वह दूषण तो एकान्तवादो के ऊपर लागू होगा हम अनेकान्तवादी के ऊपर नहीं, क्योंकि हम तो दो सम्बन्धी पदार्थों का एकलोली भाव या एकत्व परिणति होना यही रूपश्लेष का लक्षण करते हैं, सम्बन्धी पदार्थों का विवेचन नहीं कर सकना यही रूपश्लेष कहलाता है, तथा अपना असाधारण स्वरूप नहीं छोड़ना यही उसका अश्लेष ( असम्बन्ध ) कहा जाता है। ऐसा रूपश्लेष उन पदार्थोंके द्वित्व के विरुद्ध भी नहीं पड़ता है, क्योंकि वैसी प्रतीति आ रही है, जैसे कि चित्ररूप एक ज्ञान में नील पीत
आदि अनेक प्राकारों की प्रतीति आती है। "सम्बन्ध अपेक्षा रखनेवाला है अतः मिथ्या है क्योंकि पदार्थ सूक्ष्म आदि स्वभावों को लिए हुए हैं उनमें अपेक्षा हो नहीं सकती” ऐसा बौद्ध का कहना भी ठीक नहीं है, आप पदार्थों को असम्बन्ध स्वभाववाले मानते हैं किन्तु असम्बन्ध स्वभाव भी तो अपेक्षा युक्त होता है, यह पदार्थ इससे पृथक् है अथवा एक परमाण दूसरे परमाणु से असम्बद्ध है ऐसा किसी पदार्थ की अपेक्षा लेकर ही तो असम्बन्ध की व्यवस्था हुआ करती है अपेक्षा बिना तो हो नहीं
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