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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
श्रवयवार्थो वा स्यात् ? यदि स्वभावार्थ : ; न कश्चिद्दोषस्तेषां विभिन्न दिग्विभागव्यवस्थितानेकारणुभिः सम्बन्धान्यथानुपपत्त्या तावद्धा स्वभावभेदोपपत्तेः । अवयवार्थस्तु तत्रासौ नोपपद्यते ; तेषामभेद्यत्वेनावयवासम्भवात् । न चैवं तेषामविभागित्वं विरुध्यते, यतोऽविभागित्वं भेदयितुमशक्यत्वं न पुनः स्व
भावत्वम् ।
यत्तूक्तम् - निष्पन्नयोरनिष्पन्नयोर्वा पारतन्त्र्य लक्षरणः सम्बन्ध: स्यात्' इत्यादि; तदप्यसारम्; कथञ्चिन्निष्पन्नयोस्तदभ्युपगमात् । पटो हि तन्तुद्रव्यरूपतया निष्पन्न एव अन्वयिनो द्रव्यस्य पटपरिगामोत्पत्त ेः प्रागपि सत्त्वात्, स्वरूपेण त्वनिष्पन्न:, तन्तुद्रव्यमपि स्वरूपेण निष्पन्न पटपरिणामरूपतयाऽनिष्पन्नम् । तथांगुल्यादिद्रव्यं स्वरूपेण निष्पन्नम् संयोगपरिणामात्मकत्वेनानिष्पन्नमिति ।
है, स्वभाव अर्थ है या अवयव अर्थ है ? यदि स्वभाव अर्थ है तो कोई दोष नहीं आयेगा, विभिन्न दिशा देश आदि में स्थित जो अनेकों परमाणु थे उनका सम्बन्ध होने से उतने स्वभाव भेद उनमें होना संगत ही है । दूसरा विकल्प -- अवयव को अंश कहते हैं, ऐसा मानें तो ठीक नहीं, क्योंकि परमाणु अभेद्य हुआ करते हैं उनमें प्रवयव होना असम्भव है । स्वभाव भेद होते हुए भी परमाणु यों में विभागीपना रह सकता है, श्रविभागने का तो यही अर्थ है कि भेद नहीं कर सकना, स्वभाव रहित होना अविभागीपना नहीं कहलाता है ।
पहले कहा था कि निष्पन्न वस्तुओं में पारतन्त्र लक्षण वाला सम्बन्ध होता है अथवा अनिष्पन्न दो वस्तुनों में होता है इत्यादि सो यह प्रश्न व्यर्थ का है, हम स्याद्वादी तो कथंचित निष्पन्न दो वस्तुनों में सम्बन्ध होना मानते हैं । इसका खुलासा करते हैं - एक वस्त्र है वह तन्तु द्रव्य रूप से निष्पन्न ही है ऐसे ग्रन्वयी द्रव्य को पट परिणाम रूप उत्पत्ति होती है, इसमें तन्तु रूप से तो उसको पहले भी सत्त्व रहता है, किन्तु पहले वह पट स्वरूप से अनिष्पन्न था ( बना नहीं था ) ऐसे ही अंगुली आदि द्रव्य स्वरूप से निष्पन्न रहते हैं और उनका संयोग होना रूप जो परिणाम है वह निष्पन्न रहता है |
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बौद्ध का कहना है कि पदार्थ तो स्वतन्त्र रहते हैं उनमें पारतन्त्र्य नहीं होने से सम्बन्ध हो ही नहीं सकता, इस पर प्रश्न होता है कि परतन्त्रता के साथ सम्बन्ध की कहीं पर व्याप्ति देखी हुई प्रसिद्ध है या नहीं ?
अर्थात् ज्ञात है या नहीं ?
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