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प्रमेयकमलमार्तण्डे स्यापि लोचनज्ञानविषयत्वप्रसंगात्, गन्धस्मरणसहकारिलोचनव्यापारानन्तरं 'सुरभि चन्दनम्' इति प्रत्ययप्रतीतेः । तन्न प्रत्यक्षेणासौ प्रतीयते।।
___ नापि प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्याम् ; प्रत्यक्षस्येवानुपसम्भस्यापि प्रतिषेध्यविविक्तवस्तुमात्रविषयत्वेनात्राऽसामर्थ्यात् । प्रथाग्निसद्भाव एव धूमस्य भावस्तदभावे चाभावः कार्यकारणभावः, स
प्रत्यक्ष और अन्वय व्यतिरेक रूप अनुपलंभ से कार्य कारण संबंध जाना जाता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण में उस संबंध को जानने की सामर्थ्य नहीं है, वैसे अनुपलंभ में भी नहीं है, क्योंकि अनुपलंभ ज्ञान भी प्रतिषेध्य जो अग्नि धूमादि हैं उनसे पृथक्भूत जो महाह्रद ( तालाब ) आदि है उसीको विषय करता है।
शंका-अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के अभाव में नहीं होता है इस तरह का इन दोनों का जो कार्य कारण संबंध है उसका प्रत्यक्ष तथा अनुपलंभ से प्रतिभास होता है ऐसा हम कहते हैं ?
___समाधान--तो फिर वक्तृत्व आदि हेतुकी असर्वज्ञत्व के साथ व्याप्ति सिद्ध हो जायगी। देखो ! रागादिमान असर्वज्ञस्वरूप हमारे में ही वक्तृत्व देखा जाता है और रागादिभाव रहित एवं असर्वज्ञत्व रहित शिला खण्ड आदि में वह वक्तृत्व देखा नहीं जाता, इससे वक्तृत्व की असर्वज्ञ के साथ व्याप्ति सिद्ध होती है । और यदि इस बात को सही मानते हैं तो आप संबंधवादी जैन नैयायिकादिने सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के लिये जलांजलि दी समझनी चाहिये ।
विशेषार्थ--"अग्नि के सद्भाव में ही धम होता है और अग्नि के अभाव में धूम का भी प्रभाव होता है" ऐसा अन्वय व्यतिरेक सही मानकर उसके द्वारा कार्य कारण भाव सम्बन्ध सिद्ध किया जाता है तो सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार करने वाले जैन, नैयायिकादिके यहां पर बड़ा भारी दोष उपस्थित होता है, कैसे सो बताते हैं-मीमांसक सर्वज्ञ का अभाव करने के लिये अनुमान प्रमाण उपस्थित करते हैं कि "नास्ति सर्वज्ञः वक्तृत्वात्" सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह बोलने वाला है, जो बोलनेवाला होता है वह सर्वज्ञ नहीं होता, जैसे हम लोग, अर्थात् हम असर्वज्ञ तथा रागादियुक्त हैं सो हम स्वयं में असर्वज्ञ के सद्भाव में वक्तृत्व पाया जाता है और रागादि तथा असर्वज्ञत्व के
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