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क्षणभंगवाद:
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प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमानत्वाद्रूपादय : परमार्थसन्तो न पुनस्तच्छक्तयस्तासामनुमानबुद्धो प्रतिभासमानत्वात्; इत्यप्य युक्तम् ; क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादीनामपरमार्थसत्त्वप्रसङ्गात् । ततो यथा क्षणिकस्य युगपदनेककार्यकारित्वेप्येकत्वाविरोधः, तथाऽक्षणिकस्य क्रमशोनेककार्यकारित्वेपीत्यनवद्यम् ।
__ यच्चार्थक्रियालक्षणं सत्त्वमित्युक्तम् ; तत्र लक्षणशब्द: कारणार्थ :, स्वरूपार्थः, ज्ञापकार्थो वा स्यात् ? प्रथमपक्षे किमर्थक्रिया लक्षणं कारणं सत्त्वस्य, तद्द्वार्थक्रियायाः ? तत्रार्थक्रियात: सत्त्व
रहेगा, किसी अन्य से संबंध माने तो अनवस्था आती है । तथा शक्तिमान से शक्तियां अनर्थांतर भूत हैं तो शक्तिमान और शक्तियां एक स्वरूप हो जाती हैं।
जैन- यदि अनेक शक्तियां शक्तिमान पदार्थ में नहीं रह सकती हैं तो प्रतीति सिद्ध रूप, रस आदि अनेक स्वभाव भी एक पदार्थ में नहीं रह सकेंगे। उनमें वे ही प्रश्न होने लगेंगे कि रूप, रस आदि अनेक स्वभाव द्रव्य से पृथक् मानते हैं तो संबंध कौन करावे; और अपृथक हैं तो द्रव्य और वे नाना स्वभाव एकमेक होकर एक ही चीज रह जायगी, अतः उनका परमार्थ से अभाव सिद्ध होवेगा।
___ बौद्ध-रूप, रस आदि नाना स्वभाव तो एक वस्तु में साक्षात् ही बुद्धि में प्रतिभासित हो रहे हैं अतः वे स्वभाव परमार्थ भूत हैं, किन्तु शक्तिमान की शक्तियां केवल अनुमान ज्ञान में ही प्रतीत होती हैं, अतः इनका परमार्थ भूत सत्त्व सिद्ध नहीं हो पाता।
जैन- यह कथन अयुक्त है, जो अनुमान में प्रतीत होवे उसका परमार्थ सत्व नहीं माना जाय तो, वस्तु में जो क्षणक्षयीपने की शक्ति या स्वर्ग प्राप्य शक्ति आदि शक्तियां होती हैं वे सब अपरमार्थ भूत कहलायेंगी, इसलिये जैसे क्षणिक के युगपत् अनेक कार्यकारीपना होते हुवे भी एकपने का विरोध नहीं है, वैसे ही नित्य के भी क्रमशः अनेक कार्यों को करने के स्वभाव या शक्तियां परमार्थ भूत ही हैं, ऐसा निर्दोष सिद्धांत स्वीकार करना चाहिये ।
बौद्ध ने कहा था कि जो अर्थक्रिया लक्षण वाला है उसमें सत्व रहता है अथवा जिसमें अर्थक्रिया नहीं होती उसमें सत्व [ अस्तित्व ] नहीं रहता इस प्रकार सत्व का लक्षण अर्थक्रिया किया, सो लक्षण शब्द किस अर्थ वाला अभीष्ट है, कारण
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