SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षणभंगवादः स्वभावान्तरोपगमे त्रैलोक्यान्तर्गतान्यजन्य कार्यान्तरापेक्षया तस्याजनकत्वमपि स्वभावान्तरमभ्युपगन्तव्यम्, इत्यायातमेकस्यैवोपादान सहकार्यऽजनकत्वाद्यनेकविरुद्धधर्माध्यासितत्वम् । न चैते धर्माः काल्पनिकाः; तत्कार्याणामपि तथात्वप्रसङ्गात् । समनन्तरप्रत्ययत्वमप्युपादानलक्षणमनुपपन्नम् ; कार्ये समत्वं कारणस्य सर्वात्मना, एकदेशेन वा ? सर्वात्मना चेत्; यथा कारणस्य प्राग्भावित्वं तथा कार्यस्यापि स्यात्, तथा च सव्येतर गोविषाणवदेककालत्वात्तयोः कार्यकारणभावो न स्यात् । तथा कारणाभिमतस्यापि स्व १११ वह सजातीय उत्तर रूप क्षण को पैदा करता हुआ विजातीय रस क्षण की उत्पत्ति में सहकारी भी बनता है, बस ! इसी बात को यहां पर जैनाचार्य कह रहे हैं कि आप इधर तो उपादान कारण का अर्थ कार्य में अपनी सारी विशेषता अर्पित करना बतलाते हैं, और इधर वही एक उपादान कारण विजातीय कार्य का सहकारी बनता है ऐसा बतलाते हैं सो जब उपादान ने अपना सर्वस्व कार्य में दे डाला तो अब किस स्वभाव से वह अन्य का सहकारी बनेगा ? तथा रससे रूप का अनुमान होना भी दुर्लभ हो जाता है, अतः " स्वगतसकलविशेषाधायकत्व" उपादान का लक्षण करना गलत ठहरता है । यदि उपादान कारण में कार्य के अनुपयोगी ऐसा स्वभावांतर का सद्भाव माना जाता है तो तीन लोक के अंदर होने वाले ग्रन्य अन्य उपादान द्वारा जन्य जो कार्यांतर समूह है उसकी अपेक्षा से इस विवक्षित उपादान में कार्य का जनकपना रूप स्वभावांतर भी मानना होगा । इस तरह एक ही पदार्थ में उपादानत्व, सहकारित्व, प्रजनकत्व इत्यादि अनेक विरुद्ध धर्म सिद्ध हो जायेंगे जो जैन को इष्ट हैं । एक पदार्थ के उक्त विरुद्ध धर्म काल्पनिक नहीं हैं यदि इन्हें काल्पनिक मानेंगे तो उनसे होने वाले कार्य भी काल्पनिक कहलायेंगे । समनंतर प्रत्ययत्व होना उपादान कारण है ऐसा तीसरा उपादान का लक्षण भी ठीक नहीं है, "समनंतर " इस पद में सं शब्द है उसका अर्थ समान है सो कार्य में कारण का समत्व होने का अर्थ सर्व रूप से समत्व होना है या एक देश से समत्व होना है ? सर्व रूप से कहो तो जैसे कारण पूर्ववर्त्ती होता है वैसे कार्य भी पूर्ववर्त्ती कहलाने लगेगा, क्योंकि सर्व रूप से समान है । फिर कारण और कार्य गाय के दांये बांये सींग की तरह एक कालीन हो जाने से उनमें कार्य कारण भाव ही नहीं रहेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy