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________________ ११० प्रमेयकमलमार्तण्डे किञ्च, सकलस्वगतविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयक्षणे एवास्योपयोगात् तत्रानुपयुक्तस्वभावान्तराभावाच्च एकसामग्रयन्तर्गतं प्रति सहकारित्वाभावः, तत्कथं रूपादेः रसतो गति: ? जैन- ऐसा कहो तो एक पुरुष में बहुत से प्रमाता मानने पड़ेंगे, फिर गो दर्शन और अश्व दर्शन में भिन्न संतानपना हो जाने से एक के द्वारा देखे हुए पदार्थ में दूसरे को अनुसंधान नहीं होवेगा, अर्थात् जिसने पहले गाय को देखा था वही मैं अब अश्व को देख रहा हूं इत्यादि एक ही जीव के गो ज्ञान का अश्व ज्ञान के साथ अनुसंधान नहीं हो सकेगा । जैसे कि देवदत्त द्वारा देखे हुए पदार्थ में यज्ञदत्त को अनुसंधान [ दोनों का जोड़ रूप प्रतिभास ] नहीं होता है। __ कार्य में स्वगत सकल विशेष को दे डालना मात्र उपादान कारण का स्वरूप माना जाय तो और भी बहुत सी बाधा आती हैं, आगे उसी को दिखाते हैं-उपादान कारण जब कार्य में सर्व रूप से अपनी विशेषता निहित करता है उसी समय वह उपयोगी ठहरेगा, क्योंकि इतना ही उसका स्वरूप मान लिया है । तथा इस तरह उपादान में अन्य अनुपयुक्त [ कार्य में अनुपयोगी या नहीं डालने योग्य धर्म ] स्वभावांतर नहीं होने से उस उपादान कारण में एक सामग्री के अन्तर्गत होकर सहकारी होने का अभाव होने से रस से रूपादि का अनुमान ज्ञान कैसे हो सकेगा ? नहीं हो सकता। भावार्थ-बौद्ध रससे रूपादिका अनुमान होना स्वीकार करते हैं, उनके यहां रूप क्षरण और रसादि के क्षण संतान पृथक् हैं, रूप क्षण का उपादान पूर्व रूप क्षण है, इस तरह आगे आगे क्रम चलता है, पूर्वोत्तर क्षणों का समूह संतान है और एक क्षण एक क्षण संतानी है। किसी पुरुष ने आम्र फल का रस चखा, उस रस के स्वाद से-रस ज्ञान से उसने प्रथम तो रस को पैदा करने वाली सामग्री का अनुमान किया, फिर सामग्री के अनुमान से रूप का अनुमान किया, ऐसी बौद्ध की मान्यता है । उनका यह भी कहना है कि पूर्व का जो रूपक्षण है [ प्रत्येक नील, पीत, घट, पट, अात्मा आदि पदार्थ क्षण क्षण में नष्ट होकर नये नये उत्पन्न होते रहते हैं अपनी क्षणों की धारा चलती रहती है, उसमें पूर्व क्षण उत्तर क्षण का उपादान होता है और उत्तर क्षण उसका कार्य कहलाता है, प्रत्येक पदार्थ के क्षण पृथक् पृथक हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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