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________________ १०४ प्रमेयकमलमार्तण्डे अर्थक्रियालक्षणं सत्त्वं क्षणिकतया व्याप्तं नित्यताविरोधासिध्यति, सोप्यस्य क्षणिकतया व्याप्तेरिति । ननु च अर्थक्रियायाः क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्तत्वात्तयोश्चाक्षणिकेऽसम्भवात्कुतः क्रमवत्यऽर्थक्रिया नित्ये सम्भविनी ? न च सहकारिक्रमान्नित्ये क्रमवत्यप्यसौ सम्भवति; अस्योपकारकानु बौद्ध-अर्थ क्रिया है लक्षण जिसका ऐसे सत्व को व्याप्ति क्षणिकत्व साथ है अतः सत्व का नित्य के साथ विरोध है । जैन - इस तरह से तो अन्योन्याश्रय दोष आयेगा-अर्थ क्रिया लक्षण वाले सत्व की क्षणिकत्व के साथ व्याप्ति तो नित्यता के विरोध से सिद्ध होगी और नित्य के साथ विरोध की सिद्धि सत्व के क्षणिकत्व व्याप्ति से होगी, इस तरह दोनों ही असिद्ध रह जाते हैं। भावार्थ -सत्व-सत्ता या अस्तित्व और क्षणिकत्व का अविनाभाव सिद्ध करने के लिये बौद्ध ने विद्युत् का उदाहरण प्रस्तुत किया है कि जिस प्रकार विद्युत आदि पदार्थ क्षण मात्र में रहकर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही संसार भर के यावन्मात्र घट पट प्रात्मा आदि पदार्थ हैं वे सब क्षणिक हैं । विद्यु त आदि में जो सत्व या सत्ता रूप धर्म था वह क्षणिकत्व के साथ देखा गया था, अत: घट आदि पदार्थ में जो सत्व दिखायी देता है वह भी क्षणिकत्व साथ ही रहना चाहिये, उन घटादि में क्षणिकत्व की सिद्धि अनुमान से 'सर्वं क्षणिक सत्वात्' करते हैं किन्तु प्राचार्य ने इस अनुमान को प्रत्यक्ष बाधित सिद्ध किया है, एवं उसमें क्षणिकत्व का अविनाभावी सत्व सिद्ध करने का प्रयत्न असफल है ऐसा बतलाया है । विद्य त आदि पदार्थ भी सर्वथा क्षणिक नहीं हैं-क्षण मात्र रहने वाले नहीं हैं अपितु अनेक क्षण तक रहने वाले हैं न ये पदार्थ उपादान रहित हैं और न निरन्वय विनाशी हैं। पदार्थ को नित्य मानेंगे तो वह कूटस्थ हो जाने से उसमें क्रम से या युगपत् अर्थ क्रिया नहीं हो सकती अतः पदार्थ क्षणिक है ऐसा बौद्ध का कहना भी अन्योन्याश्रय दोष से भरा है, इस तरह क्षणिकत्व सिद्धि नहीं होती है। बौद्ध-अर्थ क्रिया की व्याप्ति क्रम और युगपत् के साथ है और वे नित्य में हो नहीं सकते, कैसे सो बताते हैं-क्रमिक अर्थ क्रिया नित्य में होना तो असंभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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