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________________ क्षणभंगवादः १०३ ननु 'यत्र क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधो न तत्सत् यथा गगनाम्भोरुहम्, अस्ति च नित्ये सः' इत्यतोनुमानात्ततो व्यावर्त्तमानं सत्त्वमनित्ये एवावतिष्ठत इत्यवसीयते; तन्न; सत्त्वाऽक्षणिकत्वयोविरोधाऽसिद्धेः । विरोधो हि सहानवस्थान लक्षणः, परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो वा स्यात् ? न तावदाद्यः, स हि पदार्थस्य पूर्वमुपलम्भे पश्चात्पदार्थान्तरसद्भावादभावावगतौ निश्चीयते शीतोष्णवत् । न च नित्यत्वस्योपलम्भोस्ति सत्त्वप्रसङ्गात् । नापि द्वितीयो विरोधस्तयोः सम्भवति ; नित्यत्वपरिहारेण सत्त्वस्य तत्परिहारेण वा नित्यत्वस्यानवस्थानात् । 'क्षणिकतापरिहारेण ह्यक्षणिकता व्यवस्थिता तत्परिहारेण च क्षणिकता' इत्यनयोः परस्परपरिहारस्थितिलक्षणो विरोधः । न चार्थक्रियालक्षणसत्त्वस्य क्षणिकतया व्याप्तत्वान्नित्येन विरोधः; अन्योन्याश्रयानुषङ्गात् अविनाभावसिद्धि को तीसरा चाहिये, इस तरह अनवस्था फैलेगी, तथा अक्षणिक में सत्व को बाधा देने वाला अनुमान भी नहीं है । बौद्ध- जहां पर क्रम तथा युगपत् रूप से अर्थ क्रिया नहीं होती वह सत नहीं है, जैसे आकाश पुष्प में अर्थ क्रिया नहीं होने से सत्व नहीं रहता है, नित्यअक्षणिक में भी अर्थ क्रिया का विरोध है अतः उसमें सत्व नहीं रहता है, इस अनुमान से अक्षणिक से सत्व व्यावृत्त होकर अनित्य-क्षणिक में ही रहता है ऐसा सिद्ध होता है। जैन-यह कथन गलत है, सत्व और अक्षणिक [ नित्य ] में विरोध की असिद्धि है । विरोध दो प्रकार का है सहानवस्थान विरोध और परस्पर परिहार स्थिति विरोध, इनमें से सहानवस्थान नामा विरोध तो सत्व और क्षणिक में हो नहीं सकता, क्योंकि वह तो पहले पदार्थ का उपलंभ हो पीछे अन्य पदार्थ के सद्भाव से उस प्रथम पदार्थ के अभाव को देखकर निश्चित होता है, जैसे शीत और उष्ण में होता है । किन्तु ऐसा नित्य का उपलंभ होना पाप मान नहीं सकते अन्यथा आपके यहां नित्य में सत्व मानने का प्रसंग पायेगा। परस्पर परिहार स्थिति वाला विरोध भी सत्व और अक्षणिकत्व में दिखायी नहीं देता है, इससे विपरीत नित्य का परिहार करके सत्व और सत्व का परिहार करके नित्य रहता ही नहीं । क्षणिकता का परिहार करके अक्षणिकता और अक्षणिकता का परिहार करके क्षणिकता रहती है अतः इनमें परस्पर परिहार स्थिति नामा विरोध होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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