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________________ ६८ प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यभिधानात् । न चाहेतुकेन पर्यायसहभाविना द्रव्येणानेकान्त :; 'कारणानन्तरम्' इति विशेषणात् । न चैवमसिद्धत्वम् ; मुद्गरा दिव्यापारानन्तरं कार्योत्पादवत्कारणविनाशस्यापि प्रतीतेः, 'विनष्टो घटः, उत्पन्नानि कपालानि' इति व्यवहारद्वयदर्शनात् । न च साध्यविकलमुदाहरणम् ; न हि कारणभूतो रूपादिकलापः कार्यभूतस्य रूपस्यैव हेतुर्न तु रसादेरिति प्रतीति : । नाप्यसहभावो रूपादीनां येन साधनविकलं स्यात् । तन्नोक्तहेतोरर्थानां क्षणक्षयावसाय: । इसप्रकार बौद्धाभिमत निर्हेतुक विनाश सिद्ध नहीं हो पाता है, इसलिये कार्यकारण का उत्पाद विनाश न सहेतुक मानना चाहिये न निर्हेतुक ही, क्योंकि कारण के अनंतर इनमें सहभाव देखा जाता है, जिसमें सहभाव रहता है वे सहेतुक या निर्हेतुकपने से उत्पन्न नहीं होते, जैसे रूप आदि में सहभाव होने से वे सहेतुकादि स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते हैं । नाश और उत्पाद में सहभावीपन प्रसिद्ध भी नहीं है"नाशोत्पादौ समं यद् वद् नामोन्नामौ तुलांतयोः" जिसप्रकार तराजू के दो पलडों में ऊँचापन और नीचापन एक साथ होता है उसीप्रकार पदार्थ में नाश और उत्पाद एक साथ होते हैं । ऐसा सिद्धांत है । "कारणांतरं सहभावात्'' यह हेतु अहेतुक ऐसे पर्याय सहभावी द्रव्य के साथ व्यभिचरित भी नहीं होता है अर्थात् द्रव्य और पर्याय सहभावी होकर भी अहेतुक है अतः जो सहभावी हो वह अहेतुक सहेतुक नहीं होता ऐसा कथन गलत ठहरता है, इसतरह की आशंका भी नहीं करना, क्योंकि “सहभावात्" हेतु में "कारणानंतरम्' यह विशेषण जुड़ा हुआ है, पर्याय सहभावी द्रव्य कारणांतर सहभावी नहीं होता अतः अहेतुक है । इस हेतु में प्रसिद्धपना भी नहीं है, लाठी आदि के व्यापार के अनंतर जैसे कपाल रूप कार्य का उत्पाद होता हुआ प्रसिद्ध है वैसे घट रूप कारण का विनाश भी उसी कारण के अनंतर होता हुआ प्रतीत होता है । जैसे ही लाठी आदि की चोट लगी वैसे ही घट फूट गया, ठीकरे हो गये, इस प्रकार दो तरह का व्यवहार देखा जाता है । "रूपादिवत्" यह दृष्टांत भी साध्य विकल नहीं है, कारणभूत रूपादि कलाप केवल कार्यभूत रूप का ही हेतु होवे और रस गंध प्रादि का नहीं होवे ऐसा प्रतीत नहीं होता है । रूप रस आदि में असहभाव [ क्रमभाव ] हो सो भी बात नहीं जिससे कि दृष्टांत साधन विकल कहलावे इसलिये पहले जो "तत् स्वभावत्वे सति अन्य निरपेक्षत्वात्" ऐसा हेतु बौद्ध ने प्रस्तुत किया था वह घट आदि पदार्थों के क्षणक्षयीपने को सिद्ध नहीं कर सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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