________________
क्षणभंगवाद:
श्रहेतुकविनाशाभ्युपगमे च उत्पादस्याप्यहेतुकत्वानुषङ्गो विनाशहेतुपक्षनिक्षिप्तविकल्पानाम त्राप्यविशेषात् ; तथा हि-उत्पादहेतुः स्वभावत एवोत्पित्सु भावमुत्पादयति, अनुत्पित्सु वा ? श्राद्यविकल्पे तद्धेतुवैफल्यम् । द्वितीयविकल्पेपि श्रनुत्पित्सोरुत्पादे गगनाम्भोजादेरुत्पादप्रसङ्गः । स्वहेतुसन्निधे रेवोत्पत्सोरुत्पादाभ्युपगमे विनाशहेतुसन्निधानाद्विनश्वरस्य विनाशोप्यभ्युपगमनीयो
न्यायस्य समानत्वात् ।
ततः कार्यकारणयोरुत्पादविनाशो न सहेतुकाऽहेतुको कारणानन्तरं सहभावाद्रूपादिवत् । न चानयोः सहभावोऽसिद्धः ; "नाशोत्पादौ समं यद्वन्नामोन्नामौ तुलान्तयोः ॥ [
]
६७
वस्तु को ही किया ऐसा अर्थ निकलता है और वह वस्तु तो अपने हेतु से की जा चुकी है, अतः पुनः करना व्यर्थ ठहरता है । इसप्रकार स्थिति भी अभाव के समान निर्हेतुक सिद्ध होती है, अतः यह निश्चित हुआ कि घटादि यावन्मात्र पदार्थ स्थिति स्वभाव नियत ही हुआ करते हैं, क्योंकि अपने स्थिति स्वभाव के लिये उन्हें अन्य की पेक्षा नहीं करनी पड़ती ।
अब उसीको बताते हैंस्वभाव से ही उत्पन्न होने
बौद्ध नाश को श्रहेतुक मानते हैं सो नाश की तरह उत्पाद को भी ग्रहेतुक मानने का प्रसंग आता है, उत्पाद को अन्य हेतुक मानते हैं तो जैसे विनाश को अन्य हेतुक मानने के पक्ष में दोष आते हैं वैसे इसमें भी प्रायेंगे, उत्पाद का कारण उत्पाद को उत्पन्न करता है सो स्वतः वाले पदार्थ को उत्पन्न करता है, या उत्पन्न नहीं होने के इच्छुक पदार्थ को उत्पन्न करता है ? प्रथम बात स्वीकार करते हैं तो उत्पाद का कारण मानना व्यर्थ ठहरता है, क्योंकि पदार्थ स्वतः स्वभाव से ही उत्पन्न हो जाते हैं । द्वितीय विकल्प - उत्पन्न नहीं होने वाले पदार्थ को उत्पादक कारण उत्पन्न करते हैं ऐसा माने तो नहीं उत्पन्न होने वाले प्रकाश पुष्प आदि को भी उत्पन्न करने का प्रसंग आता है । यदि कहो कि उत्पन्न होने वाले पदार्थ का हेतु जब निकट होता है तभी उस पदार्थ का उत्पाद होता है, तो इसी तरह विनाश का हेतु निकट होने पर ही विनश्वर पदार्थ का विनाश होता है ऐसा मानना चाहिये । क्योंकि न्याय तो समान होता है । जो न्याय उत्पाद के विषय में लागू करते हैं वही व्यय, नाश, अभाव या प्रच्युति के विषय में करना चाहिये ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org