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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे किञ्च यदि नामाऽहेतुको विनाशस्तथापि यदेव मुद्गरादिव्यापारानन्तरमुपलभ्यते तदैवासावभ्युपगमनीयो नोदयानन्तरम्, कस्यचित्तदा तदुपलम्भाभावात् । न च मुद्गरादिव्यापारानन्तरमस्योपलम्भात्प्रागपि सद्भावः कल्पनीय: ; प्रथमक्षणे तस्यानुपलम्भान्मुद्गरादिव्यापारानन्तरमप्यभावानुषङ्गात् । न चान्ते क्षयोपलम्भादादावप्य सावभ्युपगन्तव्यः, सन्तानेनानेकान्तात् । ८८ किञ्च उदयानन्तरध्वंसित्वं भावानाम् भिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यामन्येन ध्वंसस्यासम्भवादवसोयते, प्रमाणान्तराद्वा ? तत्रोत्तर विकल्पोऽयुक्तः; प्रत्यक्षादेरुदयानन्तरध्वंसित्वेनार्थं ग्राहकत्वाप्रतीतेः । प्रथमविकल्पे तु भिन्नाभिन्नविकल्पाभ्यां मुद्गराद्यनपेक्षत्वमेवास्य स्यात् न तृदयानन्तरं भावः । न खलु निर्हेतुकस्याश्वविषारणादे: पदार्थोदयानन्तरमेव भावितोपलब्धा । दिखायी देता है अतः तभी उसे मानना चाहिये न कि कुम्हार के द्वारा घट के बनते ही । घट उत्पत्ति के अनंतर विनष्ट हुआ ऐसा किसी को उस समय दिखायी भी नहीं देता है । लाठी आदि के व्यापार के अनंतर घट का नाश उपलब्ध होने से पहले भी उसका नाश का सद्भाव बताना तो ठीक नहीं, यदि इस तरह मानेंगे तो लाठी के व्यापार के पूर्व क्षण में नाश की उपलब्धि नहीं होने से उस व्यापार के अनंतर भी नाश की उपलब्धि नहीं हो सकेगी । लाठी के व्यापार के अंत में घट विनाश उपलब्ध होता है अतः उस व्यापार के आदि में भी विनाश था ऐसा कहना भी गलत ठहरेगा, देखिये- जो जो अंत में विनष्ट होता है वह वह आदि में विनष्ट होता है ऐसा कहेंगे तो संतान के साथ अनेकान्त होगा, क्योंकि प्रात्म संतान का निर्वाण के अन्त में तो उत्तर क्षरण की उत्पत्ति का नाश होता है किन्तु प्रादि में तो नाश नहीं होता । संपूर्ण पदार्थ उत्पत्ति नंतर ही नष्ट हो जाते हैं, सो इस बात का निश्चय कैसे होता है? लाठी द्वारा घट का नाश किया जाता है वह घट से यदि भिन्न है तो घट का प्रभाव हो नहीं सकता, और यदि अभिन्न है तो लाठी ने घट को ही किया ऐसा अर्थ निकलता है, अतः हम बौद्ध घट का विनाश पर से होना असंभव देख स्वयं ही घटादिक विनाश शील है ऐसा मानते हैं । इस तरह बौद्ध की मान्यता है, अथवा "घटादि पदार्थ उत्पत्ति के अनंतर नाश होने वाले हैं" ऐसा प्रमाणांतर से ज्ञात होने के कारण पदार्थ को विनाश शील मानते हैं । किसी प्रमाण से घटादि का उत्पत्ति अनंतर विनाश जाना जाता है प्रमाण से उत्पत्ति के अनंतर ही Jain Education International ऐसा उत्तर विकल्प प्रयुक्त होगा, क्योंकि प्रत्यक्षादि पदार्थ नष्ट होते हैं ऐसा जाना नहीं जाता । प्रथम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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