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________________ ७८ प्रमेयकमलमार्तण्डे ज्ञानस्य वा ? तदुत्पत्तौ हि दर्शनं पूर्वदर्शनाहितसंस्कारप्रबोधप्रभवस्मृतिसहायं प्रवर्तते, तच्च प्राग्नास्तीति कथं तदैव तदुत्पत्तिः ? अथ मतम्-प्रात्मनः केवलस्यैवातीताद्यर्थग्रहणसामर्थ्य स्मरणाद्यपेक्षावैययंम्, तदसामर्थ्य वा नितरां तद्वयर्थ्यम्, न खलु केवल चक्षुर्विज्ञानं गन्धग्रहणेऽसमर्थं सत्तत्स्मृतिसहायं समर्थ दृष्मिति; तदप्यसङ्गतम् ; यतः स्मरणादिरूपतया परिणतिरेवात्मनोऽतीताद्यर्थग्रहणसामर्थ्यम्, तत्कथं तदपेक्षा. वैयर्थ्यम् ? चक्षुर्विज्ञानस्य तु गन्धग्रहणपरिणामस्यैवाभावान्न तत्स्मृतिसहायस्यापि गन्धग्रहणे सामर्थ्यमिति युक्तमुत्पश्यामः ।। नहीं होना है लक्षण जिसका ऐसा जो धारणा नामा प्रत्यक्ष ज्ञान है उसे संस्कार कहते हैं, वह प्रत्यक्ष के काल में नहीं है फिर किस प्रकार उसी के काल में स्मति की अथवा प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति होवेगी ? अर्थात् प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञानों की उत्पत्ति में पर्व प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त हुए संस्कार प्रबोध से उत्पन्न हुई जो स्मृति है वह जिसमें सहायक ऐसा प्रत्यक्ष कारण हुआ करता है, ऐसा कारण पहले नहीं रहता फिर किस प्रकार उनकी उसी समय उत्पत्ति होवे ? नहीं हो सकती है। बौद्ध-आत्मा प्रत्यक्षादि की सहायता लेकर स्थिति आदि विषय का ग्राहक होता है ऐसा पहले कहा था सो उस आत्मा के बारे में शंका है कि यदि अकेले पात्मा के ही अतीतादि रूप पदार्थ को ग्रहण करने की सामर्थ्य है तो उसे स्मृति आदि की अपेक्षा लेना व्यर्थ है, और यदि अकेले अात्मा में वह सामर्थ्य नहीं है तब तो वह अपेक्षा बिलकुल ही बेकार ठहरती है, उदाहरण से स्पष्ट होता है कि अकेला चक्षुजन्य ज्ञान गन्ध पदार्थ को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है तो वह स्मृति की सहायता लेकर भी समर्थ नहीं होता है। जैन-यह असंगत है, स्मरण आदि रूप से आत्मा की जो परिणति है वही तो अतीतादि पदार्थों को ग्रहण करने की सामर्थ्य है, अतः उसकी अपेक्षा लेना किस प्रकार व्यर्थ ठहरेगा ? चक्षुजन्य ज्ञान की तो गंध ग्रहण रूप परिणति ही नहीं होती अतः उसके स्मृति की सहायता लेकर भी गंध ग्रहण में सामर्थ्य नहीं होता है, यह तो स्वाभाविक है । अतः पहले जो बौद्ध ने कहा था कि क्षणिक बुद्धि द्वारा पूर्व और उत्तर क्षणों का ग्रहण नहीं होता है अतः उनमें होने वाली स्थिति किस प्रकार प्रतीति में प्रावेगी इत्यादि सो निराकृत हुआ समझना चाहिये, क्योंकि इनका ग्रहण नित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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