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________________ क्षणभंगवादः ननु स्मरण प्रत्यभिज्ञानयोः पूर्वोपलब्धार्थ विषयत्वे तद्दर्शनकाल एवोत्पत्तिप्रसङ्गः, तद्दर्शनवत्तद्विषयत्वेनानयोरप्यविकलकारणत्वात् न चैवम्, तस्मात्र ते तद्विषये । प्रयोगः- यस्मिन्नविकले पि यन्त्र भवति न तत्तद्विषयम् यथा रूपेऽविकले तत्राभवच्छ्रोत्र विज्ञानम्, न भवतोऽविकलेपि च पूर्वोपलब्धार्थे स्मृतिप्रत्यभिज्ञाने इति; तदप्यपेशलम् ; तद्दर्शनकाले तयोः कारणाभावेनाऽप्रादुर्भावात् । न ह्यर्थस्तयोः कारणम् ; ज्ञानं प्रति कारणत्वस्यार्थे प्रागेव प्रतिषेधात् । स्मरणं हि संस्कारप्रबोधकारणम्, संस्कारश्च कालान्तराविस्मरणकाररणलक्षणधारणारूपः, तद्दर्शनकाले नास्तीति कथं तदैवास्योत्पत्तिः प्रत्यभि ज्ञान, स्मरण आदि की सहायता लेकर अत्यंत व्यवहित पर्यायों में भी एकत्व [ स्थिति ] को जान लेता है, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान ये दोनों प्रामाणिक ज्ञान हैं इस बात को तो तीसरे अध्याय में ही सिद्ध कर दिया है । ७७ बौद्ध - स्मृति और प्रत्यभिज्ञान प्रमाणों की प्रवृत्ति पहले प्रत्यक्ष द्वारा उपलब्ध हुये विषय में ही होती है तो प्रत्यक्ष के काल में हो उनकी उत्पत्ति होनी चाहिये, क्योंकि प्रत्यक्ष के समान स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का भी विषय रूप अविकल - कारण तो मौजूद ही है, किन्तु ऐसा होता नहीं अत: स्मृति और प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा पूर्व में उपलब्ध हुए विषय वाले नहीं हैं । इसीको अनुमान द्वारा अधिक स्पष्ट करते हैं- अविकल विषय मौजूद होने पर भी जो ज्ञान नहीं होता उस ज्ञान का वह विषय नहीं कहलाता है, जैसे पीत आदि रूप अविकल कारण होने पर भी कर्णजन्य ज्ञान नहीं होने से उस ज्ञान का विषय पीतादि रूप नहीं माना है, आपके अभीष्ट स्मृति और प्रत्यभिज्ञान भी अविकल कारण भूत पूर्व में उपलब्ध पदार्थ के होते हुए भी उत्पन्न नहीं होते अतः पूर्वोपलब्ध विषय वाले नहीं हैं ? प्रत्यभिज्ञान कारणों का प्रति पदार्थ जैन - यह कथन असत् है, स्मृति और प्रत्यक्ष के काल में इसलिये उत्पन्न नहीं होते हैं कि उनके अभाव है । इन ज्ञानों का कारण पदार्थ नहीं है । ज्ञान के कारण हुआ करते हैं अर्थात् ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है इस सिद्धांत का तो पहले ही [ नार्थालोकौ कारणं परिच्छेद्यत्वात् तमोवत्" इस सूत्र में दूसरे अध्याय में ] खण्डन कर आये हैं । स्मृति और प्रत्यभिज्ञान का कारण इस प्रकार है, स्मृति प्रमाण का कारण तो प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाले संस्कार का प्रबोध- प्रगट होना है, और प्रत्यभिज्ञान का संस्कार एवं स्मृति अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान रूप संस्कार और स्मरण कारण हैं । कालांतर में विस्मृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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