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अपनी बात प्रात्मा अनंत ज्ञान शक्तियों का घनपिण्ड है । ज्ञान प्रकाश के समान अन्य कोई प्रकाश नहीं है, दीपक का प्रकाश, रत्न का प्रकाश, चन्द्र का प्रकाश एवं सूर्य का प्रकाश, ज्ञान के प्रकाश द्वारा ही कार्यान्वित होता है इसके बिना उक्त सब प्रकाश निरर्थक हैं। हमारे इस ज्ञान शक्ति पर अनादिकाल से आवरण प्राया हुआ है । जैसा और जितना प्रावरण हटता है वैसा उतना ज्ञान प्रकट होता है। ज्ञान के प्रकट होने में गुरुजन एवं शास्त्र परम सहायक हुआ करते हैं। प्रायिका रत्न परम विदुषी ज्ञानमती माताजी जो कि मेरी गर्भाधान क्रिया विहीन माता हैं, उनके चरण सान्निध्य में, अन्य अनेक विषयों के साथ न्याय विषय के प्रारम्भिक ग्रंथ परीक्षामुख और न्यायदीपिका पूर्ण हए ही थे कि परम पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज जो कि ऐलक अवस्था में थे। आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज द्वारा मनि दीक्षा लेकर संघ में साधुओं को अध्ययन करा रहे थे उस समय हम कई प्रायिकामों ने पूज्य ज्ञानसागरजी महाराज के पास न्याय का पठन प्रारम्भ किया। प्रमेय रत्नमाला एवं प्राप्त परीक्षा पूर्ण हई, प्रमेयकमलमार्तण्ड का अध्ययन प्रारंभ हुमा बीच में महाराजजी का अन्यत्र विहार हो गया। अनंतर मार्तण्ड को पूज्या ज्ञानमती माताजी ने पूर्ण कराया एवं प्रागे अन्य अनेक न्याय सिद्धान्त आदि सम्बंधी ग्रन्थों का अध्ययन कराके मेरी आत्मा में अनादि काल के लगे हुए मिथ्यात्व एवं प्रज्ञान को दूर किया। जिसप्रकार वर्षाकालीन अमावस्या को घोर अंधकार वाली रात्रि में बीहड़ वन में भटके हए व्यक्ति को कोई प्रकाश देकर मार्ग पर लाता है उस प्रकार कलिकाल रूपी वर्षाकालीन पंचेन्द्रिय के विषयरूप प्रमावस्या वाली प्रज्ञान रूपी रात्रि में कुगति रूप बीहड़ वन में भटके हुए मुझको परम पूज्या अम्मा ने मोक्षमार्ग पर लगाया है ।
माताजी मझको पढ़ाती और अन्य नये विद्यार्थियों को छोटे-छोटे विषय पढ़वाती रहतीं। मेरा अध्ययन पूर्ण होने पर अध्ययन के इच्छुकों को मैंने पढ़ाना प्रारम्भ किया वत्तमान प्रायिका शुभमती दीक्षा पूर्व मुझसे शास्त्री परीक्षा का कोर्स पढ़ रही थी उसमें प्रमेय कमल मार्तण्ड ग्रन्थ निहित था केवल संस्कृत में होने के कारण पाठन में कठिनाई होती थी उन्होंने [कुमारी विमला ने] मझसे कहा कि यह ग्रन्थ दुरूह है तथा न्याय का विषय ऐसा ही कठिन पड़ता है अतः आप हिन्दी भाषा में सारांश रूप लिख दोजिये । मैंने उनके अनुनय पर लक्ष्य देकर लिखना प्रारम्भ किया, सारांश लिखने का विचार था किन्तु पूरे ग्रन्थ का अनुवाद कर लिया।
यह अनुवाद टोंक नगरी की रम्य नसियां में प्रारम्भ होकर अष्टमासावधि में यहीं पूर्ण हुमा । अनन्तर उक्त अनुवाद में अनेक परिवर्तन संवर्धन करके मैंने इसे सहारनपुर में अंतिम रूप दे दिया था। पंडित, सिद्धांत भूषण अध्यात्मप्रेमो श्रीमान् नेमिचन्द जी सहारनपुर वालों के सुझाव के अनुसार प्रथम भाग में मैंने प्रतिपक्षी प्रवादी के पूर्व पक्ष भी लिखे थे। प्रथम भाग वीर०नि० २५०४ एवं द्वितीय भाग २५०७ में प्रकाशित हुा । अब यह अंतिम तृतीय भाग २५११ में प्रकाशित हो रहा है । प्रारब्ध कार्य की पूर्णता पर प्रसन्नता होना स्वाभाविक है ।
ग्रन्थ के अनुवाद में त्रुटि, स्खलन होना संभव है अतः विद्वद्वर्ग संशोधन करे, "को न विमुह्यति शास्त्र समुद्रे"।
-प्रायिका जिनमती
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