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________________ प्रभावती ने वैराग्य से अोतप्रोत होकर सन् १९५५ में ही दीपावली के दिन पू० ज्ञानमतीजी से १० वीं प्रतिमा के व्रत ले लिये । तत्पश्चात् प० प्रा० वीरसागरजी के संघ में वि० सं० २०१२ में ब्र. प्रभावतीजी ने क्षुल्लिका दीक्षा ली; देह का नामकरण हुमा-"जिनमती"। सन् १९६१ ई० तदनुसार कार्तिक शु० ४ वि० सं० २०१६ में सीकर ( राज०) चातुर्मास के काल में पू० प्रा० १०८ श्री शिवसागरजी से क्षु० जिनमतीजी ने स्त्रीत्व के चरम सोपानभूत आर्यिका के कठोरतम व्रत अंगीकृत किये। ___ शनैः शनैः अपनी कुशाग्र बुद्धि से तथा परमविदुषी प्रा० ज्ञानमतीजी के प्रबल निमित से श्राप विदुषी हो गईं । आप स्वयं पू० ज्ञानमती माताजी को "गर्भाधान क्रिया से न्यून माता" कहती हैं । अाज अाप न्याय, व्याकरण के ग्रन्थों की विदुषी के रूप में भारतधरा को पावन व सुशोभित कर रही हैं । प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे महान् दार्शनिक ग्रन्थ की हिन्दी टीका करके आपने दार्शनिक क्षेत्र की महती पूर्ति की है। आपके कारण से इस शताब्दी का पूज्य साध्वीवर्ग नूनमेव गौरवान्वित रहेगा। अन्त में यह आशा करता हुआ कि, प्रमेयकमलमार्तण्ड की प्रस्तुत भाषा टीका "भव्यकमलमार्तण्ड" रूप सिद्ध होगी; विदुषी, पूज्या आर्या जिनमतीजी को सभक्ति बहुबार विधा वन्दन करता हुया कलम को विराम देता हूँ। विनीत : जवाहरलाल मोतीलाल बकतावत साटड़िया बाजार, भीण्डर (उदयपुर) Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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