SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ । प्रमेयकमलमार्तण्डे तदवस्थ एव भवदभ्युपगमेन । क्रियाभ्रशे तज्जातिनिवृत्तौ च व्रात्येप्यस्या निवृत्तिः स्यात्तभ्रंशाविशेषात् । किञ्च, क्रियानिवृत्तौ तज्जातेनिवृत्तिः स्याद् यदि क्रिया तस्या: कारणं व्यापिका वा स्यात्, नान्यथातिप्रसङ्गात् । न चास्या: कारणं व्यापकं वा किञ्चिदिष्टम् । न च क्रियाभ्रशे जातेविकारोस्ति; "भिन्नेष्वभिन्ना नित्या निरवयवा च जातिः।" [ ] इत्यभिधानात् । न चाविकृताया निवृत्तिः सम्भवत्यतिप्रसङ्गात् । व्यक्ति है उसका व्यवसाय प्रवृत्ति का निमित्त है और वह तो आपके सिद्धांतानुसार मौजूद ही है । दूसरी बात यह है कि ब्राह्मणत्व क्रिया नष्ट होने पर ब्राह्मणत्व जाति निवृत्त हो जाती है ऐसा स्वीकार करते हैं अर्थात् वेश्या आदि के स्थान पर ब्राह्मणी आदि के पहुंचने से उसकी क्रिया वहां नहीं रहती अत: ब्राह्मण्य जाति निवृत्त होती है ऐसा मानेंगे तो व्रात्य पुरुष में भी ब्राह्मणत्व जाति का निवृत्त होना मानना होगा, क्योंकि क्रियाभ्रश तो उभयत्र समान है । भावार्थ यह है कि कोई ब्राह्मणी कभी वेश्या प्रादि के हीन स्थान पर पहुंचती है तो उसमें ब्राह्मणत्व नहीं रहता ऐसा आपके यहां भी माना है, सो वैसे क्यों होता है ? यदि ब्राह्मण योग्य क्रिया नष्ट होने से ब्राह्मणत्व नहीं रहता तब तो व्रात्य पुरुष में भी ब्राह्मण्य जाति की निवृत्ति माननी पड़ती है, अतः क्रिया नष्ट होने से ब्राह्मणत्व नहीं रहता यह कहना गलत होता है। यह भी बात है कि क्रिया निवृत्त होने पर जाति निवृत्त होती है ऐसा माना जाता है तो क्या क्रिया उस ब्राह्मण्य जाति का कारण है ? जैसे कि धूम का कारण अग्नि है, अथवा क्रिया ब्राह्मण्य का व्यापक हेतु है जैसे कि शिशपा का व्यापक हेतु वृक्ष है ? इस तरह क्रिया को उस जाति का कारण रूप हेतु या व्यापक हेतु मानना होगा अन्यथा क्रिया के निवृत्त होने पर जाति को निवृत्ति हो ही नहीं सकती, यदि मानेंगे तो घट निवृत्त होने पर पट निवृत्त होता है ऐसा अतिप्रसंग भी स्वीकार करना होगा । किन्तु आपके यहां पर ब्राह्मण्य जाति का व्यापक रूप हेतु या कारण रूप हेतु माना नहीं है । क्योंकि ब्राह्मण जाति नित्य है, क्रिया भ्रश हो जावे किन्तु नित्य जाति में विकार नहीं आ सकता । आपके यहां "भिन्नेष्वभिन्ना नित्या निरवयवा च जाति:" ऐसा कहा गया है अर्थात् भिन्न भिन्न ब्राह्मण व्यक्तियों में अभिन्नपने से रहने वाली नित्य एक अवयव रहित ब्राह्मण्य जाति है ऐसा माना है, जब वह अविकृत है तब उसकी निवृत्ति संभव ही नहीं, यदि मानो तो अतिप्रसंग होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy