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________________ ब्राह्मणत्वजातिनिरास: परपरिकल्पितायां जातौ प्रमाणमस्ति यतोऽस्याः सद्भावः स्यात् । ___ सद्भावे वा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्याभावो निन्दा च न स्यात् जातियंत : पवित्रताहेतुः, सा च भवन्मते तदवस्थैव, अन्यथा गोत्वादपि ब्राह्मण्यं निकृष्टं स्यात् । गवादीनां हि चाण्डालादिगृहे चिरोषितानामपीष्टं शिष्टरादानम्, न तु ब्राह्मण्यादीनाम् । अथ क्रियाभ्रंशात्तत्र बाह्मण्यादीनां निन्द्यता; न; तज्जात्युपलम्भे तद्विशिष्टवस्तुव्यवसाये च पूर्ववत्क्रियाभ्रशस्याप्यऽसम्भवात् । बाह्मणत्वजातिविशिष्टव्यक्तिव्यवसायो ह्यप्रवृत्ताया अपि क्रियाया: प्रवृत्त निमित्तम्, स च पर ब्राह्मण्य है, अतः त्रिवर्ण का उपदेश ही ब्राह्मण्य जाति को सिद्ध करने में प्रमाण है" ऐसा कहना भी निराकृत हो जाता है, क्योंकि त्रिवर्ण का उपदेश भी व्यभिचरित होता हुआ देखा जाता है, बहुत से व्यक्ति अविवाद रूप से ब्राह्मण्यपने से कहे जाते हैं, किन्तु उनमें विपर्यय रहता है, अर्थात् शूद्र होकर भी किसी कारण वश वे पुरुष ब्राह्मण नाम से प्रसिद्धि में पा जाया करते हैं । अतः मीमांसक द्वारा मान्य नित्य ब्राह्मण्य जाति को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है यह निश्चित हुआ, जब प्रमाण नहीं है तब उसका सद्भाव सिद्ध होना अशक्य है। यदि नित्य एक ब्राह्मण्य जाति परमार्थ भूत सिद्ध होती तो वेश्या के स्थान या गली में प्रविष्ट हुई ब्राह्मणी के ब्राह्मणपने का अभाव नहीं होता और निंदा की पात्र भी वह ब्राह्मण स्त्री नहीं बनती ? क्योंकि पवित्रता का कारण तो आपने जाति को ही स्वीकार किया है और जाति आपके मत से चाहे कहीं भी चले जावो जैसी की तैसी बनी रहती है ? [ क्योंकि वह नित्य है ] यदि ऐसा न माना जाय तो यह आपका अभीष्ट ब्राह्मण्य गो आदि पशुओं से भी निकृष्ट कहलायेगा। क्योंकि गो आदि पशु बहुत काल तक चांडाल वेश्या आदि के स्थान घर आदि में रह जाते हैं और फिर भी उनको शिष्ट पुरुष ग्रहण कर लेते हैं किन्तु ब्राह्मणी आदि को तो ग्रहण करते नहीं। ___ शंका-वेश्या आदि के स्थान पर जाकर ब्राह्मण योग्य क्रिया खतम हो जाती है अत: ब्राह्मणी निंदा की पात्र बनती है। समाधान-ऐसा नहीं कहना, जब वेश्या के स्थान पर पहुंचने पर भी बाह्मण्य जाति नित्य होने के नाते उपलब्ध होती है एवं “यह ब्राह्मणी है" इस प्रकार का विशिष्ट निश्चय हो जाता है तब पहले के समान वहां पर भी क्रिया का नाश होना असंभव है, क्रिया की प्रवृत्ति नहीं भी हो किन्तु बाह्मण्य जाति से विशिष्ट जो . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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