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________________ ५४ कमलमण्डे "यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात्सर्वज्ञः केन वार्यते । एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते || नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते ।" [ मी० श्लो● चोदनासू० श्लो० १११-१२] इत्यभिधानात् । किञ्च, प्रमेयत्वं किमशेषज्ञेयव्यापि प्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमभ्युपगम्यते, अस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिस्वरूपं वा स्यात्, उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यस्वभावं वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, विवादाध्यासितपदार्थेषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्यासिद्धत्वात्, अन्यथा साध्यस्यापि सिद्ध हेतुपादानमपार्थकम् । सन्दिग्धान्वयञ्चायं हेतुः स्यात्; तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्तेऽसिद्धत्वात् । द्वितीयपक्षेऽसिद्धो हेतु:, श्रस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वस्य विवादगोचरार्थेष्वसम्भवात् । सम्भवे वा ततस्तथाभूतप्रत्यक्षत्व यह भी विचार करना है कि सर्वज्ञ सिद्धि में प्रस्तुत प्रमेयत्व हेतु है वह किस रूप है ? संपूर्ण ज्ञेयों में व्यापो अर्थात् संपूर्ण ज्ञेयों को जानने वाला जो प्रमाण है उसके द्वारा जानने योग्य जो प्रमेय है वह प्रमेयत्व लेना अथवा हम जैसे व्यक्तियों के प्रमाण के द्वारा जानने योग्य प्रमेयत्व लेना, या उभय व्यक्तियों में साधारण सामान्य स्वभावरूप प्रमेयत्व लेना ? प्रथम पक्ष अयुक्त है, विवाद में आये हुए सूक्ष्मादि पदार्थों में उस प्रकार का प्रमाण प्रमेयपना प्रसिद्ध है । यदि सिद्ध होता तो साध्य भी ( सर्वज्ञता ) सिद्ध रहता, फिर हेतु को देना ही बेकार है । अशेष ज्ञेय व्यापो प्रमाण प्रमेय व्यक्तिरूप यह हेतु सन्दिग्धान्वय वाला भी हो जाता है, क्योंकि उस प्रकार का प्रमाण प्रमेयपना दृष्टान्त में अग्नि में नहीं है । दूसरा पक्ष - हम जैसे व्यक्ति के प्रमाण का विषय रूप प्रमेयत्व ही सर्वज्ञ की प्रमेयत्व नामा हेतु सिद्धि करने वाले अनुमान में दिया है ऐसा कहो तो वह हेतु असिद्ध दोष वाला होगा ? हमारे प्रमाण का प्रमेयत्व विवाद में स्थित सूक्ष्मादि विषयों में असंभव है, यदि संभव होता तो हम जैसे के प्रत्यक्ष ज्ञान से सिद्ध ही होता, फिर विवाद होता हो नहीं। जिसमें विवाद नहीं है उस विषय में हेतु का देना उपयोगी नहीं रहता । उभय व्यक्ति साधारण सामान्य प्रमेयत्व है अर्थातु सर्वज्ञ और अल्पज्ञ दोनों के प्रमाणों का प्रमेयत्व है ऐसा तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं, अत्यंत विलक्षण स्वभावरूप प्रतीन्द्रिय विषय वाले प्रमाण का प्रमेयत्व और इन्द्रिय विषय वाले प्रमाणों का प्रमेयश्व इन दोनों में साधारण सामान्यपन होना बिल्कुल असंभव है, इस प्रकार अनुमान प्रमाण से सर्वज्ञ की सिद्धि होना शक्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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