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सर्वज्ञत्ववादः
चात्र सर्वज्ञत्वसाधने हेतुरस्ति ।
यदप्युच्यते - सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात्पावकादिवत्; तदप्युक्तिमात्रम् ; यतोऽत्रैकज्ञानप्रत्यक्षत्वं सूक्ष्माद्यर्थानां साध्यत्वेनाभिप्र ेतम्, प्रतिनियत विषयाने कज्ञानप्रत्यक्षत्वं वा ? तत्राद्यकल्पनायां विरुद्धो हेतु: प्रतिनियतरूपादिविषयग्राहकानेकप्रत्ययप्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याग्न्यादिदृष्टान्तधर्मिणि प्रमेयत्वस्योपलम्भात् साध्यविकलता च दृष्टान्तस्य । द्वितीयकल्पनायां सिद्धसाध्यता नेकप्रत्यक्षैरनुमानादिभिश्च तत्परिज्ञानाभ्युपगमात् ।
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सर्वज्ञ सिद्धि में जैन का प्रसिद्ध अनुमान है - सूक्ष्मांतरित दूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः, प्रमेयत्वातु पावकादिवतु । सूक्ष्म - परमाणु आदि, अंतरित - राम रावणादिक, दूरार्थसुमेरु पर्वत आदि पदार्थ ये सब किसी न किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे प्रमेय हैं ( जानने योग्य हैं) जैसे अग्नि आदि पदार्थ प्रमेय हैं । यह अनुमान ठीक नहीं बैठता, इसमें प्रश्न यह है कि सूक्ष्मादिक पदार्थों का प्रत्यक्ष होने रूप साध्य है सो क्या वे सभी पदार्थ एक ही ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं अथवा प्रतिनियत विषय वाले अनेक ज्ञानों द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं । अर्थातु एक एक पृथक पृथक ज्ञान के द्वारा सूक्ष्मादिक वस्तु जानी जाती है ऐसा मत इष्ट है अथवा सूक्ष्मादि सभी का एक ही ज्ञान के द्वारा जानना इष्ट है ? प्रथम पक्ष की बात कहे तो हेतु विरुद्ध होगा क्योंकि आपके अनुमान में हेतु प्रमेयत्व है वह प्रतिनियत रूपादि विषय वाले अनेक प्रत्यक्षों द्वारा ग्रहण में आता है, किन्तु साध्य तो एक ज्ञान से ग्रहण में ग्राने रूप है । तथा दृष्टान्त अग्निका है उसमें भी यह साध्य नहीं है अतः दृष्टान्त भी साध्यविकल कहलायेगा । दूसरा पक्ष सूक्ष्मादि
पदार्थ अनेक ज्ञानों द्वारा किसी के प्रत्यक्ष होते हैं ऐसा कहो तो सिद्ध साध्यता है, यह बात तो हम मीमांसक भी मानते हैं, अनेक प्रत्यक्ष प्रमाणों द्वारा तथा अनुमान आदि प्रमाणों द्वारा इन सूक्ष्मादि का ज्ञान किसी को हो सकता है ऐसा हमें इष्ट ही है । इसी को बताते हैं - प्रत्यक्ष प्रादि छहों प्रमाणों द्वारा संपूर्ण वस्तुनों को जानकर सर्वज्ञ बनता है अर्थात प्रशेष पदार्थों का ज्ञान अनेक प्रमाणों से होता है जिसको होता है वह सर्वज्ञ है ऐसा मानते हैं तब तो उसका हम खण्डन नहीं करते, किन्तु एक ही अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से सर्वज्ञता आती है, ऐसा मानेंगे तब तो बनता नहीं ॥ १॥ एक ही प्रमाण के द्वारा प्रशेष वस्तुत्रों को जानेगा तो क्या एक चक्षुरिन्द्रिय द्वारा सभी रसादि विषयों का ग्राहक होवेगा ? अर्थात् एक ज्ञान से सर्वज्ञ सबको जानता है ऐसा मानने से एक ही इंद्रिय द्वारा सब रसादि विषयों को जानने की विकट समस्या आती है ।
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