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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे सत्त्वेन तत्परिणामत्वस्य क्वचिदप्यसम्भवात् । तदसत्त्वं चात्रैवानन्तरं वक्ष्यामः। तत्परिणामत्वेपि वा तस्यात्मपारतन्त्र्यनिमित्तत्वाभावे कर्मत्वायोगात्, अन्यथाति प्रसङ्गः । प्रधानपारतन्त्र्यनिमित्त त्वात्तस्य कर्मत्वमिति चेन्न; प्रधानस्य तेन बन्धोपगमे मोक्षोपगमे चात्मकलानावैयर्थ्यप्रसङ्गात् । बन्धमोक्षफलानुभवनस्यात्मनि प्रतिष्ठानान्न तत्कल्पनावैयर्थ्य मित्यसत्; प्रधानस्य तत्कत्तत्ववत् तत्फलानुभोक्तत्वस्यापि प्रमाण सामर्थ्यप्राप्तत्वात्, अन्यथा कृतनाशाकृताभ्यागमदोषानुषङ्गः । अथात्मनश्चेतनत्वात्तत्फलानुभवनं न तु प्रधानस्याऽचेतनत्वात् ; तदप्ययुक्तम् ; मुक्तात्मनोपि तत्फला करने वाले हैं सांख्य अदृष्ट को प्रधान रूप मान भी लेवे किन्तु उससे आत्मा के परतन्त्रता होना नहीं मानते हैं तो उसमें कर्मत्व सिद्ध नहीं होगा । अन्यथा अतिप्रसंग पाता है। ___ भावार्थः- सांख्य आत्मा को सर्वथा अकर्ता निर्विकार मानते हैं, प्रधान के दो परिणामों का कृष्ण शुक्ल का संसर्ग सूक्ष्म प्रधान से होता है उसी का सारा विकार है, प्रात्मा सदा एकसा है ऐसा कहते हैं सो यहां प्राचार्य ने कहा कि प्रधान को कर्म मान भी लेवे किन्तु उससे आत्मा में पारतन्त्र्य नहीं पाता तो कर्मत्व ही काहे का ? जो आत्मा में विकार नहीं लाता उसको भी कर्म मानेंगे तो घट आदि पदार्थ को भी कर्मत्व संज्ञा हो जायगी । सांख्यः-कृष्ण शुक्ल रूप प्रधान तत्त्व का जो परिणमन है वह पारतन्त्र्य का कारण तो है किन्तु प्रधान के ही पारतन्त्र्य का कारण है, प्रात्मा के नहीं ? जैन:- यह कथन अयुक्त है, प्रधान परिणाम से प्रधान ही बंधता है और प्रधान ही छूटता है मतलब बंध मोक्ष प्रधान के ही होते हैं, ऐसा मानेगे तो अात्म तत्व का ही अभाव हो जायगा। सांख्यः-आत्मा का प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि आत्मा बंध मोक्ष के फल का अनुभव करता है ? जैन:- यह बात गलत है, प्रधान को ही उसका फल भोगना चाहिये, जैसे प्रधान बंध मोक्ष को करता है, उसी प्रकार से उसके फल को भी भोग लेगा, यह तो तर्क सिद्ध बात है, जो करता है वही भोगता है, अन्यथा कृतनाश और अकृत अभ्यागम नाम का दोष आता है, जिसने किया उसको कुछ हुआ नहीं और दूसरे को उसका फल भोगना पड़ा सो यह बात बिल्कुल अयुक्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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