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________________ प्रावरणविचार प्रतीते। । तथाहि-परतन्त्रोऽसौ होनस्थानपरिग्रहवत्त्वात् मद्योद्र कपरतन्त्राशुचिस्थानपरिग्रहवद्विशिष्ट पुरुषवत् । होनस्थानं हि शरीरम्, प्रात्मनो दुःखहेतुत्वात्कारागारवत् । तत्परिग्रहवाँश्च संसारी प्रसिद्ध एव । न च देवशरोरे तद्भावात्पक्षाव्याप्तिा; तस्यापि मरणे दुःखहेतुत्वप्रसिद्ध : । यत्परतन्त्रश्चासौ तत्कर्म इति सिद्ध तस्य पौद्गलिकत्वम् । तथा हि-पौद्गलिक कर्म आत्मनः पारतन्त्र्यनिमित्तत्वान्निमलादिवत् । न च क्रोधादिभिर्व्यभिचारः; तेषां जीवपरिणामानां पारतन्त्र्यस्वभावत्वात्, क्रोधादिपरिणामो हि जीवस्य पारतन्त्र्यं न पुनः पारतन्त्र्यनिमित्तम् । सत्यम् ; नात्मगुणोऽदृष्ट प्रधानपरिणामत्वात्तस्य "प्रधानपरिणामः शुक्लं कृरणं च कर्म" । ] इत्यभिधानात् ; इत्यपि मनोरथमात्रम् ; प्रधानस्या उसको परतंत्रता तो प्रमाण से सिद्ध है यह संसारी आत्मा परतंत्र है, क्योंकि इसने हीन-स्थान को ग्रहण किया है, जैसे कि मद्य के उद्रेक के आधीन हुआ पुरुष अशुचि स्थान को ग्रहण करता है, वही पड़ा रहता है । यहां हीन स्थान तो शरीर है, क्योंकि यह प्रात्मा को दुःख देता है, जैसे काराग्रह देता है । संसारी जीव उस शरीर रूपी परिग्रह को धार रहे, प्रसिद्ध ही है। देव के शरीर में दुःख हेतु का अभाव होने से हेतु अव्यापक हुआ ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि देवों को भी मरण के समय शरीर दु:ख का कारण हो जाता है, प्रात्मा के पारतंत्र्य का जो हेतु है वह कर्म ही है, इस तरह कर्म का पौद्गलिकपना सिद्ध होता है । और भो अनुमान सुनिये ! कर्म पौद्गलिक है क्योंकि वह प्रात्मा के परतंत्रता का निमित्त है, जैसे बेडी आदि परतंत्रता के निमित्त होते हैं । यह परतंत्रता का निमित्त रूप हेतु क्रोधादि के साथ व्यभिचरित भी नहीं होता, क्योंकि वे भी पारतंत्र्य स्वभाव वाले हैं, क्रोधादिक परिणाम स्वयं पारतन्त्र्य स्वरूप है न कि पारतंत्र्य का कारण है । इस प्रकार यहां तक नैयायिकादि ने कर्म को प्रात्मा का गुण मानकर शका की थी उसका खण्डन किया है। सांख्यः- यह बात तो सत्य है कि अदृष्ट या कर्म अात्मा का गुरण नहीं है, वह तो जड़ प्रधान का परिणमन है । प्रधान परिणाम के दो भेद हैं एक शुक्ल और एक कृष्ण । जैन:-यह कथन मन के मनोरथ रूप है, प्रधान ही नहीं तो उसका परिणाम क्या होगा ? कुछ भी नहीं । प्रधान का निरसन अभी इसी अध्याय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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