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________________ २८ प्रमेयकमलमार्तण्डे विज्ञानस्य चाजनकार्थग्राहित्वाभाषप्रसङ्गः । कथं च कारणत्वाविशेषेपीन्द्रियादेरग्रहणम् ? अयोग्यत्वाच्चेत् ; योग्यतै व तर्हि प्रतिकर्मव्यवस्थाकारिणी, अलमन्यकल्पनया। स्बाकारार्पकत्वाभावाच्चेन्न; ज्ञाने स्वाकारार्पकत्वस्याप्यपास्तत्वात् । कथं च कारणत्वाविशेषेपि किञ्चित्स्वाकारार्पकं किञ्चिम्नेति । प्रतिनियमो योग्यता विमा सिध्येत् ? कथं च सकलं विज्ञानं सकलार्थकार्य न स्यात् ? 'प्रतिनियतशक्तित्वाद्भावानाम्' इत्युत्तरं ग्राह्यग्राहकभावेपि समानम् । ज्ञान इन सबको जानता अवश्य है अतः जो ज्ञानका कारण है वही उसके द्वारा जाना जाता है ऐसा कहना गलत होता है ) केशोण्डुक ज्ञानमें भी पदार्थ कारण नहीं है वह तो पदार्थसे अजन्य है, उस ज्ञानमें जो अजनकार्थ ग्राहीपना देखा जाता है वह भी नहीं रहेगा। जो ज्ञानका कारण है उसको ज्ञान जानता है तो चक्षु आदि इन्द्रियोंको ज्ञान क्यों नहीं जानता इस बात को परवादी को बताना चाहिये ? आप कहो कि इन्द्रियोंमें ज्ञान द्वारा ग्राह्य होनेकी योग्यता नहीं है तो उसी योग्यता को ही क्यों न माना जाय ? फिर तो योग्यता ही प्रतिकर्म व्यवस्था करती है ऐसा स्वीकार करना ही श्रेष्ठ है, व्यर्थकी तदुत्पत्ति आदिकी कल्पना करना बेकार है। बौद्ध:- इन्द्रियोंसे ज्ञान उत्पन्न तो अवश्य होता है किन्तु इन्द्रियां अपना आकार ज्ञान में अर्पित नहीं करती अत: ज्ञान उनको नहीं जानता। जैनः-यह कथन ठीक नहीं है, ज्ञानमें वस्तु का आकार आता है इस मत का पहले सयुक्तिक खण्डन कर चुके हैं। अाप बौद्ध को कोई पूछे कि इन्द्रिय और पदार्थ समान रूपसे ज्ञानमें कारण होते हुए भी पदार्थ ही अपना आकार ज्ञानमें देता है इन्द्रियां नहीं देती ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न का उत्तर आप योग्यता कहकर ही देते हैं अर्थात् कारण समान रूपसे है किन्तु पदार्थ ही अपना आकार ज्ञान में देते हैं इन्द्रियां नहीं देती क्योंकि ऐसी ही उनमें योग्यता है, तथा सभी ज्ञान अविशेषपनेसे सभी पदार्थों का कार्य क्यों नही होता इत्यादि प्रश्न होने पर आपको यही कहना होगा कि पदार्थों में प्रतिनियत शक्ति होती है तब सबके कारण या कार्य नहीं हो सकते, ठोक इसीतरह ज्ञान के विषयमें समझना चाहिये, ज्ञानमें जिस विषय को जाननेकी शक्ति अर्थात् ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है ( सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की अपेक्षा यहां पर जगह जगह क्षयोपशम शब्दका प्रयोग हुआ है ) उसी विषय को ज्ञान जानता है, उसी ग्राह्य वस्तुका ज्ञान ग्राहक बनता है ऐसा निर्दोष सिद्धांत स्वीकार करना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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