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________________ अर्थकारणतावादः प्रकाशकानुत्पत्त ेः तदनुत्पत्तौ च प्रकाश्यानुत्पत्ते रिति । स्वकारणकलादुत्पन्नयोः प्रदीपघटयोरन्योन्यापेक्षया प्रकाश्यप्रकाशकत्वधर्मव्यवस्थाया एव प्रसिद्ध र्नेतरेतराश्रयावकाश इत्यभ्युपगमे ज्ञानार्थयोरपि स्वसामग्रीविशेषवशादुत्पन्नयोः परस्परापेक्षया ग्राह्यग्राहकत्वधर्मव्यवस्थाऽऽस्थीयताम् । कृतं प्रतीत्यपलापेन । ननु चाजनकस्याप्यर्थस्य ज्ञानेनावगती निखिलार्थावगतिप्रसङ्गात्प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात् । 'यद्धि यतो ज्ञानमुत्पद्यते तत्तस्यैव ग्राहकं नान्यस्य' इत्यस्यार्थजन्यत्वे सत्येव सा स्यादिति वदन्त प्रत्याहस्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति ।। १० ॥ तथा हि-यदर्थप्रकाशकं तत्स्वात्मन्यपेतप्रतिबन्धम् यथा प्रदीपादि, अर्थप्रकाशकं च नैयायिकः - प्रकाशक ( दीप) और प्रकाश्य (घटादिवस्तु ) ये दोनों भी अपने अपने कारण कलापसे उत्पन्न होते हैं और एक दूसरेकी अपेक्षासे प्रकाशक तथा प्रकाश्य कहलाते हैं, प्रकाशक और प्रकाश्य धर्मकी व्यवस्था तो इसप्रकार है अतः इतरेतराश्रय दोष नहीं आता । २५ जैन:- बिलकुल ठीक है यही बात ज्ञान और पदार्थ के विषय में है, ज्ञान और पदार्थ भी अपनी अपनी सामग्रीसे उत्पन्न होते हैं और एक दूसरेकी अपेक्षा लेकर ग्राह्य ग्राहक कहलाते हैं ऐसा स्वीकार करना चाहिये ? प्रतीतिके अपलाप करनेसे अब बस हो । शंका:- :- ज्ञानका अजनक ऐसा जो पदार्थ है वह ज्ञानद्वारा जाना जाता है। ऐसा मानेंगे तो एक ही ज्ञान संपूर्ण पदार्थ जानने वाला सिद्ध होगा फिर प्रतिनियत विषय व्यवस्था नहीं बन सकेगी, क्योकि जो ज्ञान जिससे उत्पन्न होता है वह उसीको जानता है अन्यको नहीं ऐसी प्रतिकर्म व्यवस्था ( यह इस ज्ञानका विषय है ) तो ज्ञानको पदार्थ से जन्य मानने पर ही हो सकती है ? अब इस शंकाका निवारण करते हुए श्री माणिक्यनंदी आचार्य कहते हैंस्वावरण क्षयोपशम लक्षण योग्यता हि प्रतिनियतमर्थव्यवस्थापयति ॥ १० ॥ सूत्रार्थ:- अपने आवरण के क्षयोपशम रूप योग्यताके निमित्त से प्रतिनियत पदार्थ को जानने का नियम बनता है, जो जिस वस्तुका प्रकाशक होता है वह अपने आवरणके रुकावटसे रहित होता है, जैसे दीपक आवरण रहित होकर घट प्रादिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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