SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे लोकात्; स्वविषयादेव तहि वैशद्यम्, तथा घटादिरूपादप्यस्तु । तस्याभासुरत्वान्नातस्तत्; इत्यप्ययुक्तम् ; बहलान्धकारनिशीथिन्यां नक्तञ्चरादीनां तत्र वैशद्याभावप्रसङ्गात् । 'विश प्रत्यक्षम्' इत्यत्र चोक्त वैशद्यकारणम् । यद्यवं प्रदीपाद्य पादानमनर्थकं तदन्तरेणापि ज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गात् ; नाऽनर्थकम् , आवरणापनयनद्वारेण विषये ग्राह्यतालक्षणस्य विशेषस्य इन्द्रियमन सोर्वा तज्ज्ञानजनकलक्षणस्यातोऽञ्जनादेरिवोत्पत्तेः । न चैतावता तस्य तत्कारणता; काण्डपटाद्यावरणापनेतुर्हस्तादेरपि तत्त्वप्रसङ्गात् । ततो यथा ज्ञानानुत्पत्तिव्यतिरेकेण नान्यत्तमः तथा विशदज्ञानोत्पत्तिव्यतिरेकेणालोकोप्यन्यो न स्यात् । भासुरत्व विशद ज्ञानका हेतु नहीं है । विशद ज्ञानका कारण तो "विशदं प्रत्यक्षं" इस सूत्र के व्याख्यान में कह आये हैं ( ज्ञानावरणके क्षय क्षयोपशमसे विशद ज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा पहले प्रतिपादन कर आये हैं ) __नैयायिकः-यदि ज्ञानमें प्रकाश कारण नहीं होता तो दीपक आदिके द्वारा रात्रिमें घट आदि को देखते हैं वह व्यर्थ होगा, फिर तो दीपक के बिना भी ज्ञानोत्पत्ति का प्रसंग आयेगा? जैनः-दीपक व्यर्थ नहीं होता, वह तो प्रावरण स्वरूप जो अंधकार है उसको हटाकर घट पट आदि ज्ञानके विषयमें ग्राह्यता रूप विशेषता लाता है, अथवा इन्द्रिय और मनमें ज्ञानको उत्पन्न करानेकी योग्यता लाता है, जैसे कि नेत्र में प्रजन डालनेसे विशद ज्ञानको उत्पन्न करने की योग्यता आती है । किन्तु इतने मात्र से उसको ज्ञान का कारण नहीं मान सकते, यदि इसतरहसे कारणोंको संगृहीत करते जायेंगे तो हाथ आदिके द्वारा वस्त्र आदिका आवरण हटाकर घट आदिका विशदज्ञान प्रकट होता है अतः उनको भी ज्ञानका कारण मानना होगा ? फिर तो ऐसा कहना होगा कि ज्ञानको अनुत्पत्ति ही अन्धकार है अन्य कोई वस्तु नहीं है ऐसा मानना आपको इष्ट है वैसे विशद ज्ञानकी उत्पत्ति ही प्रकाश है अन्य कोई वस्तु नहीं है ऐसा कथन भी मानना होगा। नैयायिकः-प्रकाशको इसलिये पृथक् पदार्थ मानते हैं कि लोक व्यवहार में "यहांपर बहुत प्रकाश है, यहांपर अल्प प्रकाश है" इसप्रकार कहा जाता है, अत: विशदज्ञानोत्पत्तिसे पथक् रूप प्रकाशको सिद्ध करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy