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________________ अर्थकारणावादः २१ ज्ञानानुत्पत्तिमात्र इत्युच्यते; यद्य वमालोकस्याप्यभावः स्याद्विशदज्ञानव्यतिरेकेणान्यस्यास्याप्यप्रतीतेः । तद्वयवहारस्तु लोके विशदज्ञानोत्पत्तिमात्रः । ननु ज्ञानस्य वैशद्यमेव तदभावे कथम् ? इत्यप्यज्ञपोद्यम् ; नक्तञ्चरादीनां रूपेऽस्मदादीनां रसादौ च तदभावेपि तस्य वैशद्योपलब्धेः । ___ पालोकविषयस्य च ज्ञानस्यात एवालोकाद्वै शद्यम्, तदन्तराद्वा, अन्यतो वा कुतश्चित् ? यद्यन्यतः; न तालोककृतं वंशद्यम् । न हि यद्यदभावेपि भवति तत्तत्कृतमतिप्रसङ्गात् । अथालोकान्तरात्; तद्विषयस्यापि तस्यालोकान्तरात्तदित्यनवस्था । न चालोकान्तरमस्ति । अथास्मादेवा जैनः- यह प्रश्न अज्ञान पूर्वक किया है, बिलाव, सिंह, आदिको रूपका ( वर्णका.) ज्ञान होता है उस ज्ञानका वैशद्य प्रकाशके अभाव में भी अनुभवमें आ रहा है, तथा उसी अंधकार में हम जैसे मनुष्यको भी रस आदि विषयका स्पष्ट ज्ञान होता हुमा देखा जाता है। यहां पर यह भी एक प्रश्न होता है कि ज्ञानमें वेशद्य प्रकाशके कारण होता है, किन्तु जब ज्ञान प्रकाशको विषय करता है तब उस ज्ञानमें वैशद्य किस कारणसे आयेगा उसी प्रकाश से आता है अथवा दूसरे प्रकाशसे आता है, या अन्य किसी कारणसे पाता है ? यदि अन्य किसी कारणसे आता है तो "ज्ञानमें निर्मलता प्रकाश द्वारा हो पाती है" ऐसा कहना गलत ठहरता है । जिसके अभाव में भी जो होता है उसके द्वारा वह किया जाता है ऐसा कहना तो अशक्य है इसतरह से कहने में तो अतिप्रसंग होगा । यदि कहा जाय कि प्रकाशको विषय करनेवाले ज्ञानकी विशदता अन्य प्रकाश से आती है तब तो अन्य अन्य प्रकाश की आवश्यकता पड़नेसे अनवस्था दोष पाता है । प्रकाश को जाननेवाले ज्ञानका वैशद्य उसी प्रकाश से आया करता है ऐसा तीसरा विकल्प माने तो इसका अर्थ हआ कि ज्ञानमें वैशद्य अपने आप आता है, फिर तो जैसे प्रकाश को विषय करने वाले ज्ञानमें वैशद्य प्रकाशसेही आया वैसे घट आदि पदार्थ रूपसे घट ज्ञान में वैशद्य आता है ऐसा भी मानना होगा। शंका:-घटके रूपमें भासुरता नहीं है अतः उस ज्ञानमें स्वविषयसे वैशद्य नहीं आ पाता ? समाधान:-यह कथन अयुक्त है, रात्रिमें बहल अंधकार में सिंह आदिको विशद ज्ञान होता है वह न हो सकेगा, क्योंकि वहांपर भासुरत्व नहीं है, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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