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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतिपादकाः सम्भवन्ति । अस्ति च गवादिशब्देभ्योऽर्थप्रतीतिः, तदन्यथानुपपत्त्या वर्णव्यतिरिक्तोऽर्थप्रतीतिहेतुः स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः । श्रोत्रविज्ञाने चासौ निरवयवोऽक्रमः प्रतिभासते, श्रवणव्यापारानन्तरमभिन्नाविभासिन्याः संविदोऽनुभवात् । न चासो वर्णविषया; वर्णानां परस्परव्यावृतरूपतयैकप्रतिभासजनकत्वविरोधात् । न चेयं सामान्यविषया; वर्णत्वव्यतिरेकेणापरसामान्यस्य गकारौकारविसर्जनीयेष्वसम्भवात्, वर्णत्वस्य च प्रतिनियतार्थप्रत्यायकत्वायोगात् । न चेयं भ्रान्ता; अबाध्यमानत्वात् । न चावाध्यमानप्रत्ययगोचरस्यापि स्फोटस्यासत्त्वम् ; अवयविद्रव्यादेरप्यसत्त्वप्रसंगात् । नित्यश्चासौ स्फोटोऽभ्युपगन्तव्यः। अनित्यत्वे संकेतकालानुभूतस्य तदैव ध्वस्तत्वात्कालान्तरे देशांतरे च गोशब्दश्रवणात्ककुदादिमदर्थप्रतीतिर्न स्यात्, का प्रतिपादक हो सकेगा ? क्योंकि अन्तिम विसर्गादि वर्ण को अर्थ प्रतिपादन करने में पूर्व वर्गों की अपेक्षा नहीं होती ऐसा स्वीकार कर लिया है। अतः निश्चय होता है कि व्यस्त वर्ण या समस्त वर्ण अर्थ के प्रतिपादक नहीं हैं। किन्तु गो ग्रादि शब्दों से अर्थ की प्रतिपत्ति होती अवश्य है अतः अन्यथानुपपत्ति रूप प्रमाण से अर्थप्रतिपत्ति का हेतु वर्ण के अतिरिक्त स्फोट नामा पदार्थ है ऐसा स्वीकार करना चाहिए । यह स्फोट श्रोत्र ज्ञान में निरंश एवं अक्रम रूप प्रतिभासित होता है, क्योंकि श्रवण व्यापार के अनन्तर एक अर्थ को अवभासन करने वाला ज्ञान अनुभव में आता है, यह ज्ञान वर्ण विषयक ( वर्ण को विषय करने वाला-वर्ण को जानने वाला ) तो हो नहीं सकता, क्योंकि परस्पर में व्यावृत्त रूप होने से वर्णों को एक प्रतिभास के जनक मानने में विरोध आता है। तथा इस ज्ञानको सामान्य विषयक भी नहीं कह सकते, क्योंकि वर्णत्व के अतिरिक्त अन्य सामान्य का उन गकार औकार और विसर्ग में प्रभाव ही है, और यह जो वर्णत्व सामान्य है उसमें प्रतिनियत अर्थ की प्रतीति कराने का प्रयोग है (सामर्थ्य नहीं है) एक अर्थ का अवभासन कराने वाला उक्त ज्ञान भ्रांत भी नहीं है क्योंकि अबाध्य है। इस तरह श्रोत्र ज्ञान में जो निरंशादि रूप प्रतीत होता है वह स्फोट है ऐसा समझना चाहिए। यदि इस अबाधित ज्ञान के विषयभूत स्फोट की सत्ता नहीं मानेंगे तो अवयवी द्रव्य रूप गो आदि पदार्थों की सत्ता भी नहीं रहेगी। इस स्फोट को नित्य रूप स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि अनित्य मानने पर संकेत काल में अनुभूत हुए स्फोट का उसी वक्त नाश हो जाने से कालांतर में और देशांतर में गो शब्द के श्रवण से सास्नादिमान गो अर्थ का बोध नहीं हो सकेगा इसका कारण यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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