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________________ स्फोटवादः ५८५ किंच, संवेदनप्रभवसंस्काराः स्वोत्पादक विज्ञानविषयस्मृतिहेतवो नार्थान्तरे ज्ञानमुत्पादयितु समर्थाः । न खलु घटज्ञानप्रभवः संस्कारः पटे स्मृति विदधदृष्टः । न च तत्संस्कारप्रभवस्मृतीनां तत्सहायता; तासां युगपदुसत्यभावात् । अयुगपदुत्पन्नानां चावस्थित्यसम्भवात् । न चाखिलसंस्कारप्रभंवैका स्मृतिः सम्भवति; अन्योन्यविरुद्धानेकार्थानुभवप्रभवसंस्काराणामप्येकस्मृतिजनकत्व प्रसंगात् । न चान्यवर्णाऽनपेक्ष एव “गौः' इत्यत्रान्त्यो वोर्थे (र्थ )प्रतिपादकः; पूर्ववर्णोच्चारणवैयर्थ्यानुषंगात् । घटशब्दान्त्यव्यवस्थितस्यापि ककुदादिमदर्थप्रतिपादकत्वप्रसंगाच्च । तन्न वर्णाः समस्ता व्यस्ता वार्थ होते उसी प्रकार उन वर्णों से उत्पन्न हुए ज्ञान भी सहकारी रूप सिद्ध नहीं होते, न उन ज्ञानों से प्रादुर्भूत संस्कार ही सहकारी रूप सिद्ध होते हैं, क्योंकि अंतिम वर्ण के काल में पूर्व वर्गों के ज्ञान तथा संस्कार भी नष्ट हो चुकते हैं, जैसे पूर्व वर्ण नष्ट हो चुकते हैं। किञ्च, पूर्व वर्गों के ज्ञानों से उत्पन्न हुए संस्कार अपने उत्पादक जो ज्ञान हैं उनके विषय में ही स्मृति उत्पन्न कर सकते हैं अन्य अर्थ में ज्ञान को उत्पन्न कराने में वे ( संस्कार ) समर्थ नहीं हो सकते । घट ज्ञान से उत्पन्न हुआ संस्कार पट में स्मृति को उत्पन्न करता हुआ देखा नहीं जाता। पूर्व ज्ञानों के संस्कारों से उत्पन्न हुई स्मृतियां अंत्य वर्ण को सहायता करती हैं ऐसा भी नहीं मान सकते क्योंकि उन स्मृतियों की एक साथ उत्पत्ति नहीं होतो। और जो अयुगपत् ( क्रम से ) उत्पन्न होते हैं उनका अवस्थान होना असंभव है । ऐसा भी संभव नहीं है कि संपूर्ण संस्कारों से एक स्मृति उत्पन्न हो जायगी और अंत्यवर्ण को सहायक बनेगी, क्योंकि ऐसा माने तो परस्पर में विरुद्ध ऐसे अनेक अर्थों के ज्ञानों से उत्पन्न हुए संस्कार भी एक स्मृति को प्रादुर्भूत कर सकेंगे। अर्थात् यदि भिन्न भिन्न गकार औकार आदि वर्गों के ज्ञानों से उत्पन्न हुए संस्कार विभिन्न होकर भी एक स्मृति को उत्पन्न कर सकते हैं तो घट, पट आदि पदार्थों के ज्ञानों से उत्पन्न हुए संस्कार भी एक स्मृति को ( सब घट पट आदि का एक खिचड़ी रूप स्मरण ) उत्पन्न कर सकते हैं, ऐसा अनिष्ट प्रसंग पाता है। “गौः” इस पद में गकार प्रौकार और विसर्ग रूप तीन वर्ण हैं, इनमें अंतिम विसर्ग वर्ण अन्य दो वर्गों की अपेक्षा को किये बिना ही अर्थ प्रतिपादन करता है ऐसा मानना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि इस तरह तो पूर्व के दो वर्णों का उच्चारण करना व्यर्थ ठहरेगा। नथा दूसरा दोष यह आयेगा कि यदि विसर्ग अन्य वर्ण की अपेक्षा किये बिना अर्थ का प्रतिपादक है तो "घटः" इस शब्द के अंत में स्थित विसर्ग भी सास्नादिमान गो अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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