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अपोहवादः
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भ्रान्तिमात्रात् ततस्तत्सिद्धौ न परमार्थतस्तदनिर्देश्यमसाधारणं वा सिद्धयेत् । प्रत्यक्षात्तथाभूतस्यास्य प्रसिद्धिः; इत्यपि मनोरथमात्रम्; निर्देश योग्यस्य साधारणासाधारणरूपस्य वस्तुनस्तेन साक्षाकरणात् । वस्तुध्यतिरेकेरण नापरा निर्देश्यता साधारणता वा प्रतिभाति' इत्यसाधारणतायामपि समानम् । 'बस्तुस्वरूपमेव सा' इत्यन्यत्रापि समानम् ।
किंच, विकल्पप्रतिभास्यऽन्यापोहगता वाच्यता वस्तुनि प्रतिषिध्यते, वस्तुगता वा ? आद्यविकल्पे सिद्धसाध्यता। न ह्यन्यापोहवाच्यतैव वस्तुवाच्यता; तत्प्रतिषेधविरोधात् । द्वितीयपक्षे तु
शंका-वस्तु से अतिरिक्त निर्देश्यता या साधारणता प्रतिभासित नहीं होती ?
समाधान-यही बात असाधारणता के विषय में भी है अर्थात् असाधारणता भी वस्तु से अतिरिक्त प्रतिभासित नहीं होती।
शंका-असाधारणता तो वस्तु का निजी स्वरूप है अत: उसके साथ प्रत्यक्ष द्वारा प्रतिभासित हो जाती है ?
समाधान - साधारणता और निर्देश्यता भी वस्तु का निजो स्वरूप है अतः वे दोनों भी प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा प्रतिपादित होते हैं ऐसा प्रतीति सिद्ध सिद्धांत स्वीकार करना चाहिये।
भावार्थ-बौद्ध वस्तुगत असाधारण धर्म को वास्तविक और प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा प्रतिभासित होना मानते हैं और उसी वस्तुके साधारण धर्मको काल्पनिक एवं प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रतिभासित न होकर शब्द द्वारा प्रतिभासित होना मानते हैं, और इस काल्पनिक धर्म का प्रतिपादक होने से ही शब्द का विषय अभाव रूप मानते हैं । इस मान्यता का निरसन करते हुए प्राचार्य ने कहा कि प्रत्यक्ष प्रमाण में तो साधारण असाधारण दोनों ही धर्म प्रतिभासित होते हैं न कि केवल असाधारण । तथा वस्तु का निर्देश्यपना भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है। अत: शब्द द्वारा स्वलक्षणभूत वस्तु का प्रतिपादन नहीं होता, अर्थात् स्वलक्षण शब्द से अनिर्देश्य है ऐसा बौद्ध का कथन गलत ठहरता है।
अब इस प्रकरण के अन्त में बौद्ध के प्रति एक प्रश्न और रह जाता है किआप स्वलक्षण रूप वस्तु में वाच्यता का निषेध करते हैं सो वह वाच्यता स्वलक्षण रूप वस्तुगत धर्म है अथवा विकल्पप्रति भासक बुद्धि में स्थित अन्यापोह गत धर्म है ?
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