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________________ ५७८ प्रमेयकमलमार्तण्डे बिभेति येन तत्र साक्षान्न वर्तेत । यश्चाशक्यसमयत्वादिकेर्थे शब्दाप्रवृत्तौ न्यायः, सोऽभिप्रायेपि समान इत्यभिप्रायावगमोपि शब्दान्न स्यात् । तन्न स्वलक्षणस्याभिधानेनानिर्देश्यत्वम् । किंच, तच्छब्देनाऽप्रतिपाद्याऽनिर्देश्यत्वमस्योच्येत, प्रतिपाद्य वा ? न तावदप्रतिपाद्य; अतिप्रसंगात् । प्रतिपाद्य चेत्; न; स्ववचनविरोधात् । शब्देन हि स्वलक्षणं प्रतिपादयता निर्देश्यत्वमस्याभ्युपगतं स्यात्, पुनश्च तदेव प्रतिषिद्धमिति । कथं चानिर्देश्यशब्देनाप्यस्यानभिधाने अनिर्देश्यत्वसिद्धिः? तथा र को ही कहता है ऐसा क्यों न माना जाय ? शब्द कोई अर्थ से डरता तो नहीं है जिससे कि वह उसमें साक्षात् प्रवृत्ति नहीं कर सके । ___शंका-अर्थ अनन्त हुअा करते हैं अतः उनमें शब्द द्वारा संकेत किया जाना अशक्य है, इसीलिये तो शब्द द्वारा अर्थ में साक्षात् प्रवृत्ति नहीं हो पाती ? समाधान--तो फिर यही न्याय अभिप्राय में लगता है अर्थात् अभिप्राय अनंत हा करते हैं अतः शब्द द्वारा अभिप्राय को जानना अशक्य है । इस प्रकार शब्द से अर्थ का प्रतिपादन होना सिद्ध होने से स्वलक्षणरूप अर्थ शब्द द्वारा अवाच्य है ऐसा बौद्ध का कहना निराकृत हुआ समझना चाहिये । तथा शब्द द्वारा स्वलक्षण का प्रतिपादन बिना किये उसका अनिर्देश्यपना ( अवाच्यपना ) कहा जाता है अथवा उसका प्रतिपादन करके कहा जाता है ? बिना प्रतिपादन किये कहा जाता है ऐसा माने तो अतिप्रसंग होगा, फिर तो घटादि पदार्थ भी अनिर्देश्य बन जायेंगे। स्वलक्षण का प्रतिपादन करके फिर उसका अनिर्देश्यपना कहा जाता है ऐसा माने तो स्ववचन विरोध होगा, क्योंकि शब्द द्वारा स्वलक्षण का प्रतिपादन कर रहे हैं तो उसका निर्देश्यत्व ही स्वीकार किया और पुनः उसीका निषेध किया । तथा “अनिर्देश्य" इस प्रकार के शब्द द्वारा भी यदि स्वलक्षण को कहा नहीं जाय तो उसका अनिर्देश्यत्व कैसे सिद्ध होगा ? भ्रांति मात्र से अनिर्देश्य शब्द द्वारा स्वलक्षण का अनिर्देश्यत्व सिद्ध करते हैं ऐसा कहो तो स्वलक्षण परमार्थ से अनिर्देश्य है अथवा असाधारण है ऐसा कहना प्रसिद्ध होगा। शंका-प्रत्यक्ष प्रमाण से ही उस प्रकार के स्वलक्षण की सिद्धि होती है ? समाधान- यह कथन अयुक्त है, प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तो शब्द से निर्देश करने योग्य साधारण और असाधारण स्वरूप वस्तु का प्रतिपादन होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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