SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 614
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपोहवादः ५६६ प्रयोगः-यद्यत्र व्यवहृतिमुपजनयति तत्तद्विषयम् यथा सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि व्यवहृतिमुपजनयत्प्रत्यक्षं तद्विषयम्, तत्र व्यवहृतिमुपजनयति च शब्द इति । न चासिद्धो हेतुः; बहिरन्तश्च शाब्दव्यवहारस्य तथाभूते वस्तुन्युपलम्भात् । भवत्कल्पितस्वलक्षणस्य तु प्रत्यक्षेऽन्यत्र वा स्वप्नेप्यप्रतिभासनात् । प्रतिज्ञापदयोश्च व्याघातः; तथाहि-'अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यम्' इत्यनेन शब्देन कश्चिदर्थोभिधीयते वा, न वा ? नाभिधीयते चेत्, कथमिन्द्रिय ग्राह्यस्यान्यत्वमतः प्रतीयते ? अथाभिधीयतेर्थः; तहि तस्यैव तद्विषयत्वप्रसिद्ध : कथन्न शब्दस्यार्थागोचरत्वप्रतिज्ञाऽतो व्याहन्येत ? साक्षादिन्द्रियग्राह्यागोचरोऽ अनुमान प्रमाण द्वारा सिद्ध होता है कि जो जहां पर व्यवहार को (विकल्प ज्ञान को) उत्पन्न करता है वह उसका विषय होता है, जैसे सामान्य विशेषात्मक पदार्थ में प्रत्यक्षज्ञान व्यवहार को उत्पन्न करता है अतः वह उसका विषय है, शब्द भी उक्त पदार्थ में व्यवहार को उत्पन्न करता है अतः वह उसका विषय है। उसमें व्यवहार को उत्पन्न करना रूप हेतु प्रसिद्ध भी नहीं, क्योंकि बहिरंग और अंतरंग रूप उक्त प्रकार की वस्तु में (सामान्य विशेषात्मक वस्तु में) शब्द जन्य ज्ञान द्वारा होने वाला व्यवहार उपलब्ध होता है। आप सौगत द्वारा परिकल्पित स्वलक्षणरूप वस्तु तो प्रत्यक्ष और अन्य अनुमानादि में ही क्या स्वप्न में भी प्रतिभासित नहीं होती। जैसे गधे के सींग किसी भी प्रमाण में प्रतीत नहीं होते । तथा शब्द द्वारा वास्तविक पदार्थ प्रतिभासित होना नहीं मानेंगे तो प्रतिज्ञा और पद का व्याघात हो जाने का प्रसंग आता है, आगे इसी को बताते हैं-यदि शब्द किसी भी अर्थ को नहीं कहता तो "इन्द्रिय द्वारा अन्य ही ग्राह्य होता है" इस शब्द द्वारा कोई अर्थ कहा जाता है कि नहीं ? यदि नहीं कहा जाता तो यह अर्थ इन्द्रिय ग्राह्य अर्थ से अन्य है ( पृथक् है ) ऐसा इस शब्द से किस प्रकार प्रतीत होता है ? और उक्त शब्द द्वारा अर्थ कहा जाता है तो वहीं अर्थ उस शब्द का विषय है ऐसा सिद्ध ही हुआ, फिर “अर्थ शब्द के अगोचर है" ऐसा प्रतिज्ञा वाक्य कैसे खण्डित नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। बौद्ध-शब्द का गोचरभूत पदार्थ अध्यवधानरूप से इन्द्रिय ग्राह्य के अगोचर है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy