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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्च हिमाचलादिभावानामप्यनेकपरमाणुप्रचयात्मनां क्षणिकत्वेन समयासम्भव इत्युक्तम्; तदप्युक्तिमात्रम्; सर्वथा क्षणिकत्वस्य बाह्याध्यात्मिकार्थे प्रतिषेत्स्यमानत्वात् । तथा चोत्पन्नेष्वप्यर्थेषु संकेतसम्भवात्, अयुक्तमुक्तम्-'उत्पन्नेष्वनुत्पन्नेषु वा संकेतासम्भवः' इत्यादि । ननु शब्देनार्थस्याभिधेयत्वे साक्षादेवातोर्थप्रतिपत्तेरिन्द्रियसंहतेर्वैफल्यप्रसंगः; तन्न; अतोऽर्थस्याऽस्पष्टाकारतया प्रतिपत्तेः, स्पष्टाकारतया तत्प्रतिपत्त्यर्थ मिन्द्रियसंहतिरप्युपपद्यते एवेति कथं तस्या वैफल्यम् ? स्पष्टाऽस्पष्टाकारतयार्थप्रतिभासभेदश्च सामग्रीभेदान्न विरुध्यते, दूरासन्नार्थोपनिबद्धेन्द्रियप्रतिभासवत् । बौद्ध ने कहा था कि हिमाचल आदि पदार्थ भी अनेक अणुओं के समूह रूप एवं क्षणिक होने से उनमें संकेत नहीं हो सकता, सो यह कथन अयुक्त है, क्योंकि हम आगे बाह्य एवं अभ्यंतर रूप जड़ चेतन पदार्थ में सर्वथा क्षणिकपने का निषेध करने वाले हैं । तथा उत्पन्न हुए पदार्थों में संकेत होना सम्भव है अतः पूर्वोक्त कथन असत्य सिद्ध होता है कि- उत्पन्न पदार्थ हो चाहे अनुत्पन्न पदार्थ हो दोनों में भी संकेत असंभव है इत्यादि । बौद्ध-शब्द द्वारा अर्थ का अभिधेयत्व होना स्वीकार करे तो उससे व्यवधान रहित साक्षात् हो अर्थ की प्रतीति हो जाने से चक्षु आदि इन्द्रिय समूह ब्यर्थ सिद्ध होता है ? जैन-ऐसा नहीं कह सकते, शब्द से अर्थ का अस्पष्टरूप प्रतिभास होता है, अतः उस पदार्थ का स्पष्टाकार से प्रतिभास होने के लिये चक्षु अादि इन्द्रिय समूह उपयुक्त होता ही है, इसलिये उसकी व्यर्थता किस प्रकार होगो ? अर्थात् नहीं होगी। एक ही पदार्थ का स्पष्टाकार और अस्पष्टाकार रूप से प्रतिभास का भेद होना सामग्री के भेद होने से विरुद्ध नहीं पड़ता अर्थात् विभिन्न सामग्री के कारण से एक ही पदार्थ कभी स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है और कभी अस्पष्ट रूप से प्रतीत होता है, जैसे दूर और निकट होने के कारण एक ही पदार्थ चक्षुइन्द्रिय द्वारा अस्पष्ट और स्पष्ट रूप प्रतीत होता है, अर्थात् पदार्थ के दूर होने रूप आदि सामग्री से चक्षु द्वारा उसका अस्पष्ट प्रतिभास होता है और निकट में होना आदि सामग्री से स्पष्ट प्रतिभास होता है, इसी प्रकार एक ही पदार्थ का शब्द द्वारा अस्पष्ट और इन्द्रिय द्वारा स्पष्ट प्रतिभास होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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