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________________ अपोहवादः हेतवः सदृशव्यवहारभाजो भावाः तथा स्वयमनीलादिस्वभावा अपि नीलादिविकल्पोत्पादकदर्शननिमित्ततया नीलादिव्यवहारभाक्त्वं प्रतिपत्स्यन्ते । सदृशपरिणामाभावे च अर्थानां सजातीयेतरव्यवस्थाऽसम्भवात्कुतः कस्य व्यावृत्तिः ? अन्यव्यावृत्या सम्बन्धावगमेपि चैतत्सर्व समानम्-तत्रानन्त्याननुगमरूपत्वस्याऽविशेषात् । ततो 'ये यत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते तस्याभिधायकाः यथा सास्नादिमत्यर्थेऽकृतसमयोऽश्वशब्दः, न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन्वस्तुनि सर्वे ध्वनयः' इत्यत्र प्रयोगेऽसिद्धो हेतुः; उक्तप्रकारेणार्थे ध्वनीनां समयसम्भवात् । मानेंगे तो उनमें सजातीय और विजातीय ( गो और अश्वादि ) की व्यवस्था असंभव होने से किस पदार्थ से किसकी व्यावृत्ति करेंगे ? अर्थात् गो शब्द अन्य की व्यावृत्ति कराता है अर्थात् विजातीय अश्वादि की व्यावृत्ति कराता है ऐसी अन्यापोह की व्यवस्था कैसे होगी ? क्योंकि सजातीय विजातीय कोई है नहीं। अतः सदृशसामान्य के बिना गो आदि शब्द का संकेत होना आदि सिद्ध नहीं होता। इसी प्रकार अनुमान के साध्य साधन रूप व्यक्तियों का सम्बन्ध ग्रहण अन्य व्यावृत्ति से होता है ऐसा बौद्ध का पूर्वोक्त कथन भी असत् सिद्ध होता है। अर्थात् अन्य व्यावृत्ति से सम्बन्ध का ग्रहण होने की मान्यता में भी यही संकेत के पक्ष में दिये गये दूषण आते हैं। आगे इसी को कहते हैंसाध्य साधन रूप व्यक्तियां अनंत होने से तथा उनमें परस्पर अनुगमन नहीं होने से उनके अविनाभाव सम्बन्ध को अन्य व्यावृत्ति से कैसे ग्रहण कर सकते हैं ? क्योंकि साध्य साधन व्यक्तियां क्षणिक एवं निरन्वय होने से अन्य व्यावृत्ति के काल में रह नहीं सकती, तथा अनंत होने से उनके सम्बन्ध को जान नहीं सकते। अतः अन्य व्यावृत्ति से शब्दों का संकेत ग्रहण एवं साध्य साधन का सम्बन्ध ग्रहण नहीं होता ऐसा सुनिश्चित असंभवत् बाधक प्रमाण से सिद्ध हो गया । इसलिये बौद्ध का उक्त अनुमान गलत ठहरता है कि जिनमें परमार्थ रूप से संकेत नहीं हैं वे शब्द अर्थाभिधायक नहीं होते हैं जैसे सास्नादिमान् गो पदार्थ में जिसका संकेत नहीं किया है ऐसा अश्व शब्द उस गो अर्थ को नहीं कहता, सब शब्द सब वस्तु में परमार्थ रूप से संकेतित नहीं होते अतः वे उनके अभिधायक (वाचक) नहीं होते हैं इत्यादि, सो इस अनुमान का "भावतः अकृतसमयत्वात् -परमार्थ से संकेत किये गये नहीं होने से" हेतु असिद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि हमारे पूर्वोक्त प्रतिपादन से अर्थात् सदृश परिणाम की अपेक्षा से शब्द में संकेत किया जाना संभव है ऐसा भली भांति सिद्ध हो गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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