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________________ अपोहवादः ५६१. 'अन्यथैवाग्निसम्बन्धाद्दाहं दग्धो हि मन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः सम्प्रतीयते ॥१॥" [वाक्यप० २।४२५ ] न चैकस्य वस्तुनो रूपद्वयमस्ति, येनास्पष्टं वस्तुगतमेव रूपं शब्दरभिधीयेत एकस्य द्वित्वविरोधात् । तन्न स्वलक्षणे संकेतः। ___नापि जातो; तस्याः क्षणिकत्वे स्वलक्षणस्येवान्वयाभावान्न संकेतः फलवान् । अक्षणिकत्वे तु क्रमेण ज्ञानोत्पादकत्वाभावः । नित्यैकस्वभावस्य परापेक्षाप्यसम्भाव्या । प्रतिषिद्धा चेयं यथास्थानम् इत्यलमतिप्रसंगेन । हुए ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता वह उसका अर्थ ( विषय ) नहीं कहलाता, जैसे रूप और शब्द से किये गये ज्ञान में रसका प्रतिभास नहीं होने से वह उसका अर्थ नहीं कहलाता, शाब्दिक ज्ञान में स्वलक्षण प्रतिभासित नहीं होता अतः वह भी उसका वाच्यार्थ नहीं है। कहा भी है – स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा अग्नि का सम्बन्ध करके दग्ध हुआ पुरुष उस अग्नि को अन्य प्रकार से जानता है और अग्नि शब्द द्वारा किसी अन्य प्रकार से ही उस अग्नि पदार्थ को जानता है, अर्थात् स्पर्शनेन्द्रिय से होने वाला अग्नि का ज्ञान स्पष्ट रूप है और अग्नि शब्द से होने वाला अग्नि रूप वाच्यार्थ का ज्ञान अस्पष्ट रूप है ॥१॥ ऐसा तो होता नहीं कि एक ही वस्तु में दो स्वरूप ( स्पष्टत्व और अस्पष्टत्व ) हो जिससे कहना सम्भव होवे कि अस्पष्टत्व वस्तुगत धर्म ही है और वह शब्दों द्वारा कहा जाता है। किन्तु एक में दो स्वरूप का विरोध है । इसलिये स्वलक्षण में संकेत होना अशक्य है ऐसा निश्चय होता है । गोत्व आदि सामान्य रूप जाति में शब्दों का संकेत होता है ऐसा दूसरा विकल्प भी असत् है, क्योंकि जाति को क्षणिक माने तो स्वलक्षण के समान उसमें भी संकेत करना लाभदायक नहीं ( क्योंकि संकेत से लेकर व्यवहारकाल तक उसका अस्तित्व नहीं रहता ) और यदि उक्त जाति को अक्षणिक मानते हैं तो वह जाति ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकेगी, तथा जो अक्षणिक अर्थात् नित्य एक स्वभाव रूप होता है उसको पर की अपेक्षा भी असम्भव है, हम बौद्ध ने नित्य एक रूप जाति का ( सामान्य का ) यथास्थान प्रतिषेध भी किया है अतः उसके विषय में अधिक नहीं कहते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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