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________________ ५६० प्रमेयकमलमार्तण्डे किंच, एतेषु समयः क्रियमाणोऽनुत्पन्नेषु क्रियेत, उत्पन्नेषु वा ? न तावदनुत्पन्ने षु परमार्थतः समयो युक्तः; असतः सर्वोपाख्यारहितस्याधारत्वानुपपत्तेः। नाप्युत्पन्नेषु; तस्यार्थानुभवशब्दस्मरणपूर्वकत्वात् शब्दस्मरणकाले चार्थस्य प्रध्वंसात् । सर्वेषां स्वलक्षणक्षणानां सादृश्यमैक्येनाध्यारोप्य संकेतविधाने सिद्ध स्वलक्षणस्याऽवाच्यत्वम् बुद्धयारोपितसादृश्यस्यैवाभिधानैरभिधानात् । वाच्यत्वे वा शब्दबुद्ध : स्पष्टप्रतिभासप्रसङ्गः, न चैवम् । न खलु यथेन्द्रियबुद्धिः स्पष्टप्रतिभासा प्रतिभासते तथा शब्दबुद्धिः। प्रयोगश्च-यो यत्कृते प्रत्यये न प्रतिभासते न स तस्यार्थः यथा रूपशब्दप्रभवप्रत्यये रसाप्रतिभासने नासो तदर्थः, न प्रतिभासते च शाब्दप्रत्यये स्वलक्षणमिति । उक्तञ्च शंका-हिमाचल आदि पदार्थ स्थिर एवं एक रूप होते हैं अतः संकेत काल से व्यवहार काल तक व्यापक रूप से वे रहते ही हैं उनमें संकेत होना संभव है ? समाधान-ऐसा सम्भव नहीं, हिमाचलादि पदार्थ भी अनेक अणुओं के समूह रूप होते हैं इन अणुओं के प्रचय प्रादुर्भाव के अनंतर ही अपर्वागत (विनष्ट) हो जाते हैं अतः इनमें संकेत का होना असंभव ही है । तथा इन शाबलेयादि गो विशेषों में यदि संकेत किया जाय तो वह अनुत्पन्न गो विशेषों में करे कि उत्पन्न गो विशेषों में करे ? अनुत्पन्न गो विशेषों में तो वास्तविकपने से संकेत हो नहीं सकता क्योंकि जो अनुत्पन्न है अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ वह पदार्थ असत् ही है असद्भूत संपूर्ण स्वभाव से रहित पदार्थ संकेत का आधार नहीं होता । उत्पन्न हुए गो आदि विशेषों में संकेत किया जाना भो अशक्य है इसका भी कारण यह कि पदार्थ का अनुभव एवं शब्द का स्मरण होने पर ही संकेत किया जाना शक्य है किन्तु शब्द के स्मरण काल में पदार्थ विनष्ट हो चुकता है । शंका-संपूर्ण स्वलक्षणभूत विशेष क्षणों में अभेदपने से सादृश्य का आरोप करके संकेत किया जाता है ? समाधान-तो फिर ठीक ही है स्वलक्षण अवाच्य है यह तो भली भांति सिद्ध हुआ, बुद्धि में आरोपित हुआ जो सादृश्य है उसी को शब्दों द्वारा संकेतित किया जाता है न कि स्वलक्षण को ! यदि स्वलक्षण शब्द द्वारा वाच्य होता तो शाब्दिक ज्ञान का प्रतिभास स्पष्ट रूप से होता किन्तु ऐसा होता नहीं, क्योंकि जिस प्रकार इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट रूप से प्रतीति में आता है उस प्रकार शाब्दिक ज्ञान स्पष्ट रूप से प्रतीति में नहीं पाता। अनुमान द्वारा भी सिद्ध होता है कि- जो जिसके द्वारा किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001277
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 2
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages698
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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