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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
सम्भवति । न ह्यश्वादिबुद्धयापोहोऽध्यवसीयते । किं तर्हि ? वस्त्वेव । अपोहज्ञानासम्भवश्चोक्तः प्राक् । न चाज्ञातोप्यपोहो विशेषणं भवति । "नागृहीत विशेषरणा विशेष्ये बुद्धिः " [ धानात् ।
] इत्यभि
अस्तु वाऽपोहज्ञापनम्, ( ज्ञानम् ) तथापि - अर्थे तदाकारबुद्धयभावात्तस्याऽविशेषणत्वम् । सर्वं हि विशेषणं स्वाकारानुरूपां विशेष्ये बुद्धिं जनयद्दष्टम्, न त्वन्यादृशं विशेषणमन्यादृशीं बुद्धि विशेष्ये जनयति । न खलु नीलमुत्पले 'रक्तम्' इति प्रत्ययमुत्पादयति, दण्डो वा 'कुण्डली' इति । न
सम्भव नहीं है । क्योंकि अपोह ज्ञात है । अश्वादि के ज्ञान द्वारा अपोह का निश्चय नहीं किया जाता किन्तु वस्तु का ही निश्चय किया जाता है, इसका भी कारण पहले बता दिया है कि अपोह का ज्ञान होना सम्भव है । अज्ञात होते हुए भी ग्रपोह विशेषण बन सकता है ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि "नागृहोत विशेषणा विशेष्ये बुद्धि: " जिसने विशेषण को ग्रहण नहीं किया वह ज्ञान विशेष्य में प्रवृत्त नहीं होता ऐसा नियम है ।
यदि मान लिया जाय कि प्रपोह का ज्ञान होना शक्य है तो भी तदाकार ( अपोहाकार ) रूप ज्ञान के नहीं होने से उसमें विशेषणपना आना अशक्य है ( बौद्ध मत में ज्ञान पदार्थ के आकार हुए बिना उसको जान नहीं सकता ) क्योंकि जो भी विशेषण होता है वह सर्व ही विशेष्य में अपने प्राकार के अनुरूप ज्ञानको उत्पन्न करता हुआ देखा गया है, ऐसा तो होना नहीं कि विशेषण किसी प्रन्याकार हो और विशेष्य में किसी अन्य आकाररूप ज्ञानको उत्पन्न करे । नोल विशेषण कमल में "यह लाल है" ऐसे ज्ञान को उत्पन्न करा सकता है क्या ? अर्थात् नहीं करा सकता, दण्डा किसी पुरुष में "यह कुण्डल वाला है" ऐसे ज्ञानको उत्पन्न करा सकता है क्या ? नहीं करा सकता । इसी प्रकार अश्वादि पदार्थों में शब्द द्वारा उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रभाव से अनुरक्त ( पोह से संसक्त ) नहीं होता, किन्तु सद्भावाकार ही होता है । प्रर्थात् शब्द जन्य ज्ञान अभावाकार नहीं होता अपितु सद्भावाकार ही होता है, इसलिये अश्वादि की व्यावृत्तिरूप पोह या अनील की व्यावृत्तिरूप पोह किसी का विशेषण नहीं हो सकता । इस प्रकार सिद्ध होता है कि अपोह किसी का विशेषण नहीं बन सकता फिर भी जबरदस्ती उसमें विशेषणपना माना जाता है तब तो सब सबके विशेषरण हो सकेंगे । यदि कदाचित् प्रश्वादि पदार्थों में होने वाले शब्दजन्य ज्ञान को प्रभावाकार
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